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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 257 अस्यौदाहरणमुपदर्शयतिआढ्यो वै देवदत्तोयं वर्तते नवकंबलः / इत्युक्ते प्रत्यवस्थानं कुतोस्य नवकंबलाः॥२८२॥ यस्मादाढ्यत्वसंसिद्धिर्भवेदिति यदा परः। प्रतिब्रूयात्तदा वाचि छलं तेनोपपादितम् // 283 // नवकंबलशब्दे हि वृत्त्या प्रोक्ते विशेषतः। नवोऽस्य कंबलो जीर्णो नैवेत्याकूतमांजसम् / 284 / वक्तः संभाव्यते तस्मादन्यस्यार्थस्य कल्पना। नवास्य कंबला नाष्टावित्यस्यासंभवात्मनः 2855 प्रत्यवस्थातुरन्यायवादितामानयेधुवं। संतस्तत्त्वपरीक्षायां कथं स्युश्छलवादिनः // 286 // कथं पुनरनियमविशेषाभिहितोर्थः वक्तुरभिप्रायादर्थांतरकल्पना वाक्छलाख्या प्रत्यवस्थातुरन्यायवादितामानयेदिति चेत्, छलस्यान्यायरूपत्वात्। तथाहि-तस्य प्रत्यवस्था सामान्यशब्दस्यानेकार्थत्वे अन्यतराभिधानकल्पनाया विशेषवचनाद्दर्शनीयमेतत् स्यात् विशेषाज्जानीमोऽयमर्थस्त्वया विवक्षितो नवास्य कंबला इति, न पुनर्नवोस्य कंबल इति / स च विशेषो नास्ति तस्मान्मिथ्याभियोगमात्रमेतदिति। प्रसिद्धश्च के निराकरण की अपेक्षा नहीं करके सामान्यरूप से वचन व्यवहार में प्रसिद्ध हो रहे अर्थ के वादी द्वारा कह चुकने पर यदि प्रतिवादी वक्ता वादी के अभिप्राय से अन्य अर्थों की कल्पना कर प्रत्यवस्थान देता है, तो यह प्रतिवादी का वाक् छल है। अतः वादी से प्रतिवादी का पराजय हो जाता है। क्योंकि लोक में सामान्यरूप से प्रयोग किये गये शब्द अपने अभीष्ट विशेष अर्थों को कह देते हैं। : श्री विद्यानन्द आचार्य इस वाक् छल के उदाहरण को वार्त्तिक द्वारा दिखलाते हैं - यह देवदत्त अवश्य ही धनवान है, क्योंकि नवकंबलवाला (नवीन कम्बल वाला) है। इस प्रकार वादी द्वारा कथन कर चुकने पर प्रतिवादी द्वारा प्रत्यवस्थान उठाया जाता है कि इसके पास नौ संख्या वाले कंबल कहाँ हैं? जिससे कि हेतु के पक्ष में धनीपन की सिद्धि हो जाती। इस प्रकार दूसरा प्रतिवादी जब प्रत्युत्तर कहेगा, तब उस प्रतिवादी के वचनों में छल की उपपत्ति होगी। अत: छल दोष से ग्रसित हुआ प्रतिवादी विचारशीलों की दृष्टि में गिर जाता है / / 282-283 // - यहाँ इस अनुमान में नव और कंबल शब्द का कर्मधारय समास करके विशेष रूप से “नवकंबल" शब्द कहा गया है कि इसके पास नवीन कंबल रहता है। फटा, पुराना कम्बल कभी देखने में नहीं आता है। इस प्रकार का ही वक्ता का अभिप्राय तात्त्विक रूप से संभव है। किन्तु प्रतिवादी कषायवश उस अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ की कल्पना कर दोष देने के लिए बैठ जाता है कि नव कंबल शब्द द्वारा इसके नौ संख्या वाले कंबल होने चाहिए, आठ भी नहीं। इस प्रकार असंभव स्वरूप अर्थ की कल्पना कर प्रत्यवस्थान उठा रहे प्रतिवादी पर 'अन्यायपूर्वक बोलता है तो उसे निश्चय से अन्यायवादी कहना चाहिए अर्थात् उस प्रतिवादी को अन्यायवादी माना जाना चाहिए। तत्त्वों की परीक्षा करने में सज्जन पुरुष अधिकारप्राप्त हैं। छलपूर्वक कहने वाले तत्त्वों की परीक्षा कैसे कर सकेंगे? अथवा जो सज्जन हैं वे स्वभाव से छलपूर्वक वाद करने वाले कैसे हो सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं // 284-285-286 // .. कोई प्रश्न करता है कि फिर विशेष नियम किये बिना ही वक्ता के सामान्यरूप से कह दिये गये अर्थ की वक्ता के अभिप्राय से अर्थान्तर की कल्पना करना वाक्छल नाम को धारता हुआ प्रत्यवस्थान
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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