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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 231 पत्रवाक्यं स्वयं वादी व्याचष्टेन्यैरनिश्चितम्। यथा तथैव व्याचष्टां गूढोपन्यासमात्मनः // 206 // अव्याख्याने तु तस्यास्तु जयाभावो न निग्रहः / परस्य पक्षसंसिद्ध्यभावातावता ध्रुवम् 207 द्रुतोच्चारादितस्त्वेताः कथंचिदवगच्छतः। सिद्धांतद्वयतत्त्वज्ञैस्ततो नाज्ञानसंभवः // 208 // वक्तुः प्रलापमात्रे तु तयोरनवबोधनम् / नाविज्ञातार्थमेतत्स्याद्वर्णानुक्रमवादवत् // 209 // ततो नेदमविज्ञातार्थं निरर्थकाद्भिद्यते नाप्यपार्थकमित्याहप्रतिसंबंधहीनानां शब्दानामभिभाषणं। पौर्वापर्येण योगस्य तत्राभावादपार्थकम् // 210 // दाडिमानि दशेत्यादिशब्दवत्परिकीर्तनम् / ते निरर्थकतो भिन्नं न युक्त्या व्यवतिष्ठते॥२११॥ यदि वादी अन्य विद्वानों के द्वारा अनिश्चित पत्रवाक्य का जैसे व्याख्यान करता है, उसी प्रकार वादी गूढ़ पदों का व्याख्यान कर देता है। जैनाचार्य कहते हैं कि गूढ़ पद का प्रयोग करके वादी किसी कारणवश उस गूढ़ शब्द का व्याख्यान नहीं करता है तो उस वादी की पराजय हो सकती है, परन्तु इस प्रकार गूढ़ पदों का उच्चारण करने वाले विद्वान् का निग्रहस्थान नहीं हो सकता। क्योंकि गूढ़ अर्थ का उच्चारण करने पर प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि का अभाव है। तथा परपक्ष की सिद्धि के अभाव में वादी का निग्रहस्थान नहीं हो सकता। अर्थात् गूढ़ अर्थ का प्रयोग करने पर यदि प्रतिवादी और सभासदों को समझ में नहीं आता है तो वादी अविज्ञात नामक निग्रहस्थान को प्राप्त नहीं होता है॥२०६-२०७॥ यदि वादी के द्वारा शीघ्र उच्चारण करना वा श ष स एवं ड ल व ब त र आदि का विवेक न करके शकृत् का सकृत उच्चारण करना, दाँत नहीं होने से स्पष्ट नहीं बोल पाना आदि कारणों से यदि प्रतिवादी और सभासद कुछ स्वल्प समझ पाते हैं, पूर्ण रूप से समझ नहीं पाते हैं। क्योंकि सभासद लोग वादी और प्रतिवादी दोनों के सिद्धान्त तत्त्वों के ज्ञाता होते हैं। अत: सभासदों के द्वारा वादी के अभिप्रेत अर्थ का अज्ञान होना संभव नहीं // 208 // ___ वक्ता (वादी) के प्रलाप मात्र (व्यर्थ वचनों का प्रयोग) करने पर प्रतिवादी और सभासदों को वादी के द्वारा कथित अर्थ का ज्ञान नहीं होना अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान नहीं है। जैसे कि ज ब ग ड द श आदि वर्णों के अनुक्रम का निर्देश करके व्यर्थ कथन करने वाले वादी का अविज्ञातार्थ नामक निग्रह स्थान नहीं होता है।।२०९। इसलिए अविज्ञातार्थ नामक निग्रह स्थान को मानना उपयुक्त नहीं है। .. इसलिए अविज्ञातार्थ नामक निग्रह स्थान निरर्थक निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है तथा अपार्थक नामक निग्रह स्थान भी निरर्थक निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है। उसी को आचार्य कहते हैं - पूर्वापर के साथ योग का अभाव होने से अर्थ सम्बन्धहीन शब्दों का कथन करना अपार्थक नामक निग्रह स्थान है, जैसे दश अनार हैं, छह रोटी हैं, इत्यादिक शब्द बोलने के समान असंगत शब्दों का उच्चारण करना वादी का अपार्थक नामक निग्रहस्थान है। वह अपार्थक नामक निग्रहस्थान भी युक्तिपूर्वक विचार करने पर निरर्थक निग्रहस्थान से पृथक्भूत व्यवस्थित नहीं हो सकता // 210-211 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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