SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 230 परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरुक्तमपि वादिना / अविज्ञातमविज्ञातार्थं तदुक्तं जडात्मभिः // 20 // यदा मंदमती तावत्परिषत्प्रतिवादिनौ। तदा सत्यगिरोपेते निग्रहस्थानमापयेत् // 203 // . यदा तु तौ महाप्राज्ञौ तदा गूढाभिधानतः / द्रुतोच्चारादितो वा स्यात्तयोरनवबोधनम् / / 204 / / प्राग्विकल्पे कथं युक्तं तस्य निग्रहणं सताम् / पत्रवाक्यप्रयोगेपि वक्तुस्तदनुषंगतः // 205 // अब अविज्ञातार्थ निग्रह स्थान का विचार करते हैं - न्याय दर्शन में गौतम ऋषि ने जो अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान का लक्षण कहा था कि वादी के द्वारा तीन बार कहने पर भी यदि सभासद तथा प्रतिवादी के वह पक्ष हेतु समझ में नहीं आता है तो वादी का अविज्ञातार्थ नामक निग्रह स्थान हो जाता है (कहा जाता है)। न्याय भाष्य में उदाहरण देकर कहा है कि वादी के द्वारा तीन बार कथित वाक्य को यदि प्रतिवादी और सभासद नहीं समझते हैं तो वह वादी का अविज्ञातार्थ नामक निग्रहस्थान है। अथवा अत्यन्त शीघ्र - शीघ्र उच्चारण करना वा विजय प्राप्ति की इच्छा से गूढ अर्थ वाले पदों का प्रयोग करना इत्यादि कारणों से अपने असामर्थ्य को छिपा देने का कुत्सित प्रयोग करने पर वादी का अविज्ञातार्थ नामक निग्रहस्थान होता है। यदि वादी साध्य को साधने में समर्थ है तो भी गूढ़ पद प्रयोग करने से या शीघ्र बोलने से उसका अज्ञान समझा जाता है। इस प्रकरण में उस अविज्ञातार्थ का आचार्य विचार करते हैं - ज्ञान से सर्वथा भिन्न जड़ स्वरूप आत्मा को मानने वाले नैयायिकों के द्वारा जो अविज्ञात अर्थ का लक्षण कहा गया था कि वादी के द्वारा तीन बार किसी वस्तु के लक्षण का कथन करने पर भी यदि सभासद और प्रतिवादी के समझ में नहीं आया हो तो इससे वादी का अविज्ञातार्थ नामक निग्रहस्थान हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिवादी के द्वारा तीन बार कहने पर वादी और सभासदों के समझ में नहीं आता है तो प्रतिवादी का अविज्ञातार्थ नामक निग्रह स्थान हो जाता है। जब सभासद और प्रतिवादी मंद बुद्धि के धारक हैं, तब तो सत्य वचन बोलने वाले वादी में (वा वादी के) भी निग्रहस्थान प्राप्त करा देंगे; वादी की पराजय करा देंगे। अर्थात् मूर्ख लोगों की सभा में विद्वान् भी पराजय को प्राप्त हो जाता है। महापंडित भी मूों के द्वारा जीत लिया जाता है॥२०२-२०३॥ जब सभासद और प्रतिवादी महाप्राज्ञ (बुद्धिमान) हैं, तब वादी के द्वारा गूढ़ पदों का प्रयोग करने से अथवा शीघ्र उच्चारण करने से उन दोनों को ज्ञान नहीं हो रहा है (वे समझ नहीं पा रहे हैं), तो प्रथम विकल्प में (वादी के द्वारा गूढ प्रयोग करने के कारण) तो सज्जन पुरुषों के सम्मुख वादी का निग्रह (पराजय) कैसे युक्त हो सकता है? अर्थात् वादी की पराजय नहीं हो सकती। क्योंकि गूढ़ पद के प्रयोग करने पर प्रतिवादी अर्थ को नहीं समझ पाता है इससे यदि वादी का निग्रह किया जायेगा तो पत्रवाक्य के प्रयोग में भी वक्ता के निग्रह स्थान का प्रसंग आयेगा। परन्तु जहाँ गूढ़ पदों को पत्र में लिख कर शास्त्रार्थ किया जाता है, वहाँ गूढ़ अर्थ प्रतिवादी की समझ में नहीं आता है तो वादी का निग्रहस्थान नहीं हो सकता // 204205 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy