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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 228 प्रतिसंबंधशून्यानामर्थानामभिभाषणम् / यत्पुन: प्रकृतादर्थादर्थांतरसमाश्रितम् // 193 // क्वचित्किंचिदपि न्यस्य हेतुं तच्छब्दसाधने / पदादिव्याकृतिं कुर्याद्यथानेकप्रकारतः // 194 // तत्रापि साधनेशक्ते प्रोक्तेर्थांतरवाक् कथम् / निग्रहो दूषणे वापि लोकवद्विनियम्यते // 195 // असमर्थे तु तन्न स्यात्कस्यचित्पक्षसाधने। निग्रहार्थांतरं वादे नान्यथेति विनिश्चयः // 196 // निरर्थकं विचारयितुमारभते वर्णक्रमस्य निर्देशो यथा तद्वन्निरर्थकं / (कथं) यथा जबझभेत्यादेः प्रत्याहारस्य कुत्रचित् / / 197 // आचार्य कहते हैं- जो प्रकरण प्राप्त अर्थ से प्रतिकूल अर्थान्तर से आश्रित है तथा विद्वानों के प्रति सम्बन्ध से शून्य अर्थों का प्ररूपक है वह अर्थान्तर है। जैसे किसी पक्ष में किसी भी साध्य को स्थापित कर वादी द्वारा विवक्षित हेतु कहा गया है। ऐसे अवसर पर वादी उस हेतु शब्द के सिद्ध करने में पद, कारक, धात्वर्थ आदि का अनेक प्रकारों से व्युत्पादन करने लगता है वा व्युत्पादन करता है अर्थात् स्वादिगण की “हि गतौ बुद्धौ च" धातु से 'तुन्' प्रत्यय करने पर कृदन्त में हेतु शब्द निष्पन्न होता है। सुबन्त और तिङन्त ये दो पद होते हैं। उपसर्ग क्रिया के अर्थ का द्योतक है। इत्यादि अप्रकृत बातों का कथन करना वादी का निरर्थक निग्रहस्थान हो जाता है, क्योंकि वादी प्रतिवादियों को न्यायपूर्वक सार्थक प्रकृतोपयोगी वाक्य कहने चाहिए। प्रकरण को छोड़कर हेतु शब्द 'हिनोति' धातु से तु प्रत्यय करने पर बनता है। इत्यादि कहना अर्थान्तर निग्रह स्थान है।।१९३-१९४॥ अर्थान्तर नामक निग्रह स्थान के प्रकरण में वादी के द्वारा साध्य को साधने में समर्थ साधन (हेतु) के कह देने पर पुनः यदि वादी अप्रकत (अप्रकरण) की वार्ता कहता है तो वह वादी का अर्थान्तर नामक निग्रह स्थान कैसे हो सकता है? अथवा वादी के द्वारा साध्य की सिद्धि के लिए असमर्थ हेतु का कथन करने पर पुन: असम्बद्ध कथन करना अर्थान्तर निग्रह क्यों कहा जाता है? वा वादी के किसी पक्ष के साधन में प्रतिवादी के द्वारा समर्थ दूषण देने पर निग्रह स्थान कहलाता है। वा असमर्थ .दूषण देने पर निग्रह स्थान कहलाता है। जैसे कि लोक में स्वकीय कार्य को सिद्ध करने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। अर्थात् लौकिक व्यवस्था के अनुसार विशेष रूप से नियम किया जाता है, तब तो निग्रहस्थान नहीं हो सकता। वादी या प्रतिवादी द्वारा असमर्थ साधन या दूषण कहने पर तो किसी का भी वह निग्रहस्थान नहीं होगा। वाद में किसी भी एक के पक्ष की सिद्धि हो जाने पर दूसरे असम्बद्ध भाषी का अर्थान्तर निग्रह स्थान होगा। अन्य प्रकारों से निग्रहस्थान हो जाने की व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार पूर्व प्रकरण में इसका निश्चय किया है॥१९५-१९६॥ अब निरर्थक नामक निग्रहस्थान का विचार करते हैं - जैसे क ख ग घ आदि वर्णमाला के अक्षरों के क्रम का निर्देश करना निरर्थक है, उसी प्रकार निष्प्रयोजन अक्षरों का प्रयोग करने से प्रतिपादक का निरर्थक नामक निग्रह स्थान हो जाता है। जैसे कि किसी स्थल पर शब्द की नित्यता सिद्ध करने के लिए व्याकरण के "ज ब ग ड द श, झ भ घ, ढ ध ष अल् हल् जश आदि प्रत्याहारों का निरूपण करने वाला पुरुष निग्रहीत (पराजित) हो जाता है॥१९७॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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