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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 227 यथा चोद्भाविते दोषे हेतोर्यद्वा विशेषणं / ब्रूयात्कश्चित्तथा दृष्टांतादेरपि जिगीषया॥१९२॥ अविशेषोक्तौ हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वंतरमिति सूत्रकारवचनात् द्वित्वत्वं निग्रहस्थानं साधनांतरोपादाने पूर्वस्यासामर्थ्यख्यापनात्। सामर्थ्य वा पूर्वस्य हेत्वंतरं व्यर्थमित्युद्योतकरो व्याचक्षाणो गतानुगतिकतामात्मसात्कुरुते प्रकारांतरेणापि हेत्वंतरवचनदर्शनात्। तथा अविशेषोक्ते दृष्टांतोपनयनिगमने प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो दृष्टांताद्यंतरोपादाने पूर्वस्यासामर्थ्यख्यापनात्। सामर्थ्य वा पूर्वस्य प्रतिदृष्टांताद्यंतरं व्यर्थमिति वक्तुमशक्यत्वात्। अत्राक्षेपसमाधानानां समानत्वात् यदप्युपादेशिप्रकृतादर्थादप्रतिसंबंधत्वार्थमर्थांतरमभ्युपगमार्थासंगतत्वान्निग्रहस्थानमिति तदपि विचारयतिद्वारा अनैकान्तिक हेत्वाभास के दोषों द्वारा वादी के पराजित हो जाने पर हेत्वन्तर का कथन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि हेत्वन्तर और दृष्टान्तान्तर में कोई विशेषता नहीं है। अथवा, जैसे हेतु के दोषों का उत्थापन कर देने पर हेतु के विशेषणं लगाकर हेत्वन्तर निग्रहस्थान कहा जाता है, उसी प्रकार दृष्टान्त आदि के दोष उठाने की इच्छा से दृष्टान्तान्तर को कहना दृष्टांतान्तर निग्रह स्थान है। यह भी स्वीकार करना पड़ेगा अर्थात् दृष्टान्तान्तर भिन्न निग्रह स्थान सिद्ध हो जायेगा॥१९०-१९१-१९२॥ विशेषता को लक्षित न कर सामान्य रूप से हेतु के कहने पर पुनः प्रतिवादी के द्वारा हेतु के प्रतिषिद्ध हो जाने पर विशेष अंश की इच्छा करने वाले वादी का हेत्वन्तर निग्रहस्थान हो जाता है। न्यायसूत्र कार का वचन है। यहाँ उसी हेतु में अन्य विशेषण का प्रक्षेप कर देने से अथवा अन्य नवीन हेतु का प्रयोग करने से दोनों ही हेत्वन्तर निग्रह स्थान कहे जाते हैं। अन्य साधनान्तर को ग्रहण करने पर वादी के पूर्व हेतु की असमर्थता प्रकट हो जाती है। वादी का पूर्व कथित हेतु यदि समर्थ है तो वादी का अन्य ज्ञापक हेतु उठाना व्यर्थ हो जाता है। इस प्रकार कहने वाले उद्योतकर गतानुगतिकता (देखादेखी) आत्मसात् कर रहा है, क्योंकि अन्य प्रकार से भी हेत्वन्तर का वचन (कथन) देखा जाता है। . तथा हेत्वन्तर के समान वादी के द्वारा अविशेष रूप से दृष्टान्त उपनय और निगमन के कथन का निषेध कर देने पर पुन:दृष्टान्त आदि में विशेषणों की इच्छा रखने वाले वादी के द्वारा अन्य दृष्टान्त उपनय आदि को ग्रहण करने पर पूर्वकथित दृष्टान्त आदि की असामर्थ्य को प्रकट कर देने से वादी का निग्रह स्थान हो जाता है। अथवा पूर्वकथित दृष्टान्त आदि की योग्य सामर्थ्य होने पर पुनः वादी द्वारा प्रतिदृष्टान्तान्तर का कथन करना व्यर्थ हो जाता है। ऐसा भी कहा जा सकता है। इसमें आक्षेप और समाधान समान हैं। अर्थात् हेत्वन्तर निग्रह स्थान के समान दृष्टान्तान्तर आदि निग्रहस्थान भी हो सकते हैं। इनमें कोई विशेषता नहीं अब न्याय दर्शन में गौतम ऋषि ने जो ‘अर्थान्तर' निग्रहस्थान का लक्षण करते समय कहा था कि प्रकरण अर्थ से असम्बद्ध (प्रकरण के साथ सम्बन्ध नहीं रखने वाले) अर्थ का कथन करना ‘अर्थान्तर' नामक निग्रह स्थान है। अत: प्रकरण प्राप्त अर्थ की उपेक्षा कर प्रकृत में जिसकी अपेक्षा नहीं है उस अर्थ का कथन करना अर्थान्तर है। इसमें स्वीकृत अर्थ की असंगति होने से निग्रह स्थान माना गया है। इसी को
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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