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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 223 विरुद्धोद्भावनं हेतोः प्रतिपक्षप्रसाधनं / यथा तथाविनाभाविहेतूक्तिः स्वार्थसाधना // 176 / / साधनावयवोनेकः प्रयोक्तव्यो यथापरः। तथा दोषोपि किं न स्यादुद्भाव्यस्तत्र तत्त्वतः / 177 / तस्मात्प्रयुज्यमानस्य गम्यमानस्य वा स्वयं। संगरस्याव्यवस्थानं कथाविच्छेदमात्रकृत् // 178 // संगरः प्रतिज्ञा तस्य वादिना प्रयुज्यमानस्य पक्षधर्मोपसंहारवचनसामर्थ्यानगम्यमानस्य वा यदव्यवस्थानं स्वदृष्टांते प्रतिदृष्टांतधर्मानुज्ञानात् प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधेन धर्मविकल्पात् तदर्थनिर्देशाद्वा प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधात् प्रतिज्ञाविरोधाद्वा प्रतिवादिनापद्येत तत्कथाविच्छेदमात्रं करोति न पुनः पराजयं वादिनः स्वपक्षस्य प्रतिवादिनावश्य साधनीयत्वादिति न्यायं बुद्ध्यामहे / प्रतिज्ञावचनं तु कथाविच्छे दमात्रमपि न प्रयोजयति ___ जैसे वादी के, हेतु के विरुद्ध दोष का उद्भावन करने से प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार वादी के द्वारा अविनाभावी हेतु का कथन करने से वादी की स्वार्थसिद्धि हो जाती है अर्थात् साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले हेतु का कथन करना ही स्वकीय अर्थ की सिद्धि का कारण है॥१७६॥ ... जिस प्रकार वादी के द्वारा साधन के अनेक दूसरे अवयवों का प्रयोग करना उचित है, उसी प्रकार प्रतिवादी के द्वारा वास्तविक रूप से अनेक दोषों का उत्थापन करना उचित क्यों नहीं है? इसलिए स्वयं मुख से उच्चारण की गई, वा अर्थापत्ति के द्वारा गम्यमान (जानी गई) प्रतिज्ञा की तीन निग्रहस्थानों के द्वारा व्यवस्था नहीं होने देना है। वह केवल निग्रहस्थान देकर बाद में विघ्न डाल देना मात्र है। यों केवल कथा का विच्छेद कर देने से प्रतिवादी द्वारा वादी का पराजय सम्भव नहीं है।।१७७-१७८ / / __संगर वा प्रतिज्ञा एकार्थवाची है। वादी के द्वारा प्रयुक्त उस प्रतिज्ञा वचन नामक संगर की पक्ष धर्म के उपसंहार रूप वचन के सामर्थ्य से गम्यमान (अर्थापत्ति के द्वारा ज्ञात) प्रतिज्ञा की व्यवस्था नहीं होने देना (वा वादकथा का अवसान कर देना) है। स्वकीय दृष्टान्त में वादी के द्वारा प्रतिवादी के प्रतिकूल दृष्टान्त के धर्म की स्वीकारता करना रूप प्रतिज्ञाहानि से प्रतिज्ञा की अव्यवस्था होती है तथा प्रतिज्ञात अर्थ का प्रतिषेध कर देने से, धर्मान्तर के विकल्प से उस प्रतिज्ञात अर्थ का निर्देश करने रूप प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान से तथा प्रतिज्ञा और हेतु के विरोध रूप प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रह स्थान से प्रतिवादी के द्वारा वादी के प्रतिज्ञावाक्य की अव्यवस्था कर दी जाती है। इस प्रकार प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर और प्रतिज्ञाविरोध नामक तीन निग्रहस्थान के द्वारा प्रतिवादी केवल कथा के विच्छेद को करता है। इससे वादी की पराजय नहीं हो सकती। क्योंकि प्रतिवादी के द्वारा विजय प्राप्त करने के लिए स्वपक्ष का साधन (स्वपक्ष सिद्ध करने वाले हेतु का कथन) करना आवश्यक है। हम इसी को न्याय समझते हैं। प्रतिज्ञा का वचन कथा के विच्छेद मात्र का प्रयोजक नहीं है। भावार्थ - बौद्ध सिद्धान्तानुसार अर्थ या प्रकरण से प्रतिज्ञा जान ली जाती है, प्रतिज्ञा का व्यर्थ में उच्चारण करना वादी का निग्रह स्थान है, क्योंकि वादी केवल प्रतिज्ञा का उच्चारण कर कथा का विच्छेद करना चाहता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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