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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 222 प्रतिज्ञावचनादेवासाधनांगवचनेन वादिनिगृहीते प्रतिज्ञाविरुद्धस्यानिग्रहत्वमेवेति धर्मकीर्तिनोक्तं दूषणमसंगतं गम्यमानः प्राह प्रतिज्ञावचनेनैव निगृहीतस्य वादिनः। न प्रतिज्ञाविरोधस्य निग्रहत्वमितीतरे॥१७॥ तेषामनेकदोषस्य साधनस्याभिभाषणे। परेणैकस्य दोषस्य कथनं निग्रहो यथा // 171 // तथान्यस्यात्र तेनैव कथनं तस्य निग्रहः। किं नेष्टो वादिनोरेवं युगपन्निग्रहस्तव // 17 // साधनावयवस्यापि कस्यचिद्वचने सकृत् / जयोस्तु वादिनोन्यस्यावचने च पराजयः॥१७३॥ प्रतिपक्षाविनाभाविदोषस्योद्भावने यदि। वादिनि न्यक्कृतेन्यस्य कथं नास्य विनिग्रहः / 174 // तदा साध्याविनाभावि साधनावयवेरणे। तस्यैव शक्त्युभयाकारेन्यस्यवाक् च पराजयः१७५॥ यहाँ (इस प्रकरण में) प्रतिज्ञा वचन के द्वारा ही असाधनांग वचन से वादी का निग्रह हो जाने पर पुनः उस वादी के प्रति प्रतिज्ञाविरुद्ध अनिग्रह ही है अर्थात् प्रतिज्ञाविरुद्ध निग्रहस्थान नहीं हैं। अतः यह धर्मकीर्ति के द्वारा कथित प्रतिज्ञाविरुद्ध निग्रहस्थान नामक दूषण असंगत है। इसी बात को आचार्य समझाते प्रतिज्ञावचन के द्वारा निग्रहस्थान को प्राप्त वादी के प्रतिज्ञाविरोध का निग्रहस्थान नहीं होता है। इस प्रकार कोई बौद्ध विद्वान् कहता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं - जैसे उन (बौद्धों) के अनेक दोष वाले साधन (हेतु) का कथन करने पर प्रतिवादी के द्वारा एक दोष का कथन कर देना ही वादी का निग्रह हो जाता है उसी प्रकार यहाँ भी उसी वादी के द्वारा साधन के अंगों से भिन्न अंग का कथन करना उस वादी का निग्रहस्थान क्यों नहीं इष्ट कर लिया जाता है। तथा इस प्रकार होने पर तेरे मत में वादी और प्रतिवादी दोनों का एक साथ निग्रह हो जाता है। अर्थात् वादी तो असाधन के अंगों का कथन कर रहा है और प्रतिवादी अपने कर्तव्य रूप से स्वीकृत सम्पूर्ण दोषों को उत्थापन करने में प्रमादी हो रहा है॥१७०-१७१-१७२॥ किसी भी साधन (हेतु) के अवयव का कथन करने पर एक साथ (एक समय में) वादी की विजय और अन्य (दूसरे) साधन अवयव का कथन नहीं करने पर वादी की पराजय हो जाती है। अर्थात् साधन के अंग के कहने पर विजय और कुछ साधन के अंग नहीं कहने से वादी के एक साथ जय, पराजय प्राप्त हो जाने का प्रसंग आता है॥१७३।। यदि सौगत सिद्धान्तानुसार प्रतिकूल पक्ष के अविनाभावी दोष का प्रतिवादी के द्वारा उत्थापन हो जाने पर वादी का तिरस्कार हो जाता है, तब तो साध्य के साथ अविनाभाव रखने वाले साधनरूप अवयव का कथन करने पर वादी द्वारा इस अन्य प्रतिवादी का विशेष रूप से निग्रह क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा। जब उस साध्य का अविनाभावी साधन के अवयव का कथन करने पर शक्ति के उभयाकार में अन्य के वचन प्रतिवादी की पराजय में कारण हो जाते हैं अर्थात् प्रतिपक्ष के अविनाभावी दोषों का कथन करने पर वादी की पराजय हो जाती है और वादी के द्वारा साध्य के अविनाभावी हेतु का कथन करने पर प्रतिवादी की पराजय हो जाती है। इस प्रकार उभय शक्ति के आकार (कथन) में अन्य के वाक् पराजित हो जाते हैं॥१७४-१७५॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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