________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 220 यदप्यवादि तेन परपक्षसिद्धेन गोत्वादिनानैकांतिकचोदनाविरुद्धेति यः परपक्षसिद्धेन गोत्वादिना व्यभिचारयति तद्विरुद्धमुत्तरं वेदितव्यम्। अनित्यः शब्दः ऐंद्रियकत्वात् घटवदिति केनचिबौद्धं प्रत्युक्तं, नैयायिकप्रसिद्धेन गोत्वादिना सामान्येन हेतोरनैकांतिकत्वचोदना हि विरुद्धमुत्तरं सौगतस्यानिष्टसिद्धेरिति / तदपि न विचाराहमित्याह गोत्वादिना स्वसिद्धेन यानैकांतिकचोदना। परपक्षविरुद्धं स्यादुत्तरं तदिहेत्यपि // 163 // न प्रतिज्ञाविरोधेतर्भावमेति कथंचन / स्वयं तु साधिते सम्यग्गोत्वादौ दोष एव सः॥१६४॥ निराकृतौ परेणास्यानैकांतिकसमानता। हेतोरेव भवेत्तावत् संधादोषस्तु नेष्यते // 165 // उद्योतकर ने जो यह कहा था कि दूसरे पक्ष में प्रसिद्ध गोत्व आदि नित्य जातियों के द्वारा अनैकान्तिक हेत्वाभास की शंका उठाना विरुद्ध है। इस प्रकार, जो परपक्ष से सिद्ध गोत्व आदि जातियों के द्वारा हेतु का व्यभिचार उठाया जाता है, वह उद्योतकर का उत्तर विरुद्ध समझना चाहिए। . जैसे शब्द अनित्य है इन्द्रियज्ञान जन्य होने से घट के समान / इस प्रकार कह चुकने पर नैयायिकों के यहाँ प्रसिद्ध गोत्व आदि सामान्य जाति के द्वारा इन्द्रियजन्यत्व हेतु में व्यभिचारी की कुतर्कणा उठाना विरुद्ध उत्तर है। क्योंकि इस हेतु से बौद्धों के अनिष्ट की सिद्धि होती है। अर्थात् बौद्ध जन भी घट के समान सामान्य को भी अनित्य मानते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उद्योतकर का कहना भी विचार करने योग्य नहीं है। इसी को आचार्य कहते हैं - बौद्ध सिद्धान्त में गोत्व आदि जातियों को अनित्य माना है। इसलिए स्वकीय सिद्धान्त में सिद्ध गोत्वादि के द्वारा जो व्यभिचारीत्व की शंका उठाई जाती है, वह उत्तर भी परपक्ष से विरुद्ध पड़ता है। इसलिए वह व्यभिचार दोष किसी प्रकार से प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान में अन्तर्भाव को प्राप्त नहीं हो सकता। परन्तु स्वयं गोत्व आदि के सम्यक् प्रकार साध चुकने पर वह दोष ही है। किन्तु दूसरे प्रतिवादी के द्वारा पक्ष का निराकरण कर देने पर उस हेतु का अनैकान्तिक हेत्वाभासपना समान ही होगा। इसलिए वह हेत्वाभास प्रतिज्ञा का दोष नहीं माना जा सकता // 163-165 // . जो उद्योतकर ने कहा था कि “स्वपक्षानपेक्षं" - इसका अर्थ इस प्रकार है कि जो नैयायिक अपने निज पक्ष की अपेक्षा नहीं रखने वाले हेतु का प्रयोग करता है, जैसे शब्द अनित्य है इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय होने से। इस हेतु में नैयायिकादि मत में गोत्व, अश्वत्व आदि जातियों के अनित्यत्व का विरोध हो जाने से वह हेतु विरुद्ध है। भावार्थ - नैयायिक इन्द्रियज्ञान का विषय होने से शब्द को अनित्य सिद्ध करना चाहता है, परन्तु अनित्य हेतु नित्य रहने वाली गोत्व आदि जाति में भी जाता है। अत: जो-जो इन्द्रियज्ञान के विषय हैं वेवे अनित्य हैं -ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि इन्द्रियज्ञान विषय हेतु नित्य, गोत्व आदि जाति में भी जाता है। गोत्वादि जाति इन्द्रियज्ञान का विषय है, परन्तु अनित्य नहीं है। अत: इन्द्रियज्ञान विषय हेतु शब्द को अनित्य सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि यह हेतु अनैकान्तिक है। ऐसा उद्योतकर का कहना है। परन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि उद्योतकर का यह कथन भी चातुर्यपूर्ण नहीं है। इसी को आचार्य स्पष्ट करते हुए कहते