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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 219 यदप्यभिहितं तेन, एतेन प्रतिज्ञाया दृष्टांतविरोधो वक्तव्यो हेतोश्च दृष्टांतादिभिर्विरोधः प्रमाणविरोधश्च प्रतिज्ञाहेत्वोर्यथा वक्तव्य इति, तदपि न परीक्षाक्षममित्याह दृष्टांतस्य च यो नाम विरोधः संधयोदितः। साधनस्य च दृष्टांतप्रमुखैर्मानबाधनम् // 156 / / प्रतिज्ञादिषु तस्यापि न प्रतिज्ञाविरोधता / सूत्रारूढतयोक्तस्य भांडालेख्यनयोक्तिवत् // 157 // प्रतिज्ञानेन दृष्टांतबाधने सति गम्यते। तत्प्रतिज्ञाविरोधः स्याविष्ठत्वादिति चेन्मतम् // 158 // हंत हेतुविरोधोपि किं नैषोभीष्ट एव ते। दृष्टांतादिविरोधोपि हेतुरेतेन वर्णितः // 159 // निग्रहस्थानसंख्यानविघातकृदयं ततः। यथोक्तनिग्रहस्थानेष्वंतर्भावविरोधतः॥१६०॥ प्रत्यक्षादिप्रमाणेन प्रतिज्ञाबाधनं पुनः। प्रतिज्ञाहानिरायाता प्रकारांतरतः स्फुटम् // 11 // निदर्शनादिबाधा च निग्रहांतरमेव ते। प्रतिज्ञानश्रुतेस्तत्राभावात्तद्बाधनात्ययात् // 162 / / उद्योतकर पंडित ने जो यह कहा था कि “पूर्वोक्त विचार से प्रतिज्ञा द्वारा दृष्टान्त का विरोध भी करना चाहिए और दृष्टान्त आदि के द्वारा हेतु का विरोध करना चाहिए। तथा जैसे प्रतिज्ञा और हेतु विरोध करने योग्य है, उसी प्रकार प्रमाण आदि के द्वारा बाधित अन्य विरोध भी वक्तव्य हैं।" जैनाचार्य कहते हैं कि यह उद्योतकर का कथन भी परीक्षा को सहन करने में समर्थ नहीं है। इसी को ग्रन्थकार कहते हैं - जो उद्योतकर ने प्रतिज्ञा के द्वारा दृष्टान्त का विरोध कहा है, तथा दृष्टान्त, उपनय आदि के द्वारा हेतु का विरोध कहा है और प्रतिज्ञा आदिकों में जो प्रमाणों के द्वारा बाधा आ जाना, या विरोध होने का निरूपण किया है, उसके भी प्रतिज्ञाविरोधता नामक निग्रहस्थानपना नहीं है। क्योंकि गौतम सूत्र में प्रतिज्ञा और हेतु के विरोध को निग्रह स्थान रूप से आरूढ़ करके कहा गया है। जैसे मिट्टी आदि से निर्मित बर्तन में उकेरा हुआ चित्राम चिरकाल तक स्थिर रहता है, उसी प्रकार सूत्र में आरूढ़ तत्त्व चिरकाल तक स्थिर रहता है। उस सूत्र में स्थित प्रतिज्ञाविरोध आदि को ग्रहण करना चाहिए, स्वेच्छानुसार नहीं // 156-157 // प्रतिज्ञा के द्वारा दृष्टान्त के बाधित हो जाने पर अर्थापत्ति न्याय के द्वारा जान लिया जाता है कि यह प्रतिज्ञाविरोध है। (इसलिए दृष्टान्तविरोध और प्रमाणविरोध प्रतिज्ञाविरोध में गर्भित हो जाता है) क्योंकि विरोध.दो पदार्थों में रहता है। इस प्रकार उद्योतकर का मन्तव्य होने पर जैनाचार्य कहते हैं- हंत (बड़े खेद की बात है कि)! तुम्हारे (नैयायिकों के) सिद्धान्त में हेतु का विरोध नामक निग्रहस्थान क्यों स्वीकार किया गया है? हेतु का दृष्टान्त आदि के साथ विरोध भी स्वतंत्र रूप से निग्रह स्थान क्यों नहीं माना है? इस कथन से आचार्यदेव ने यह वर्णन किया है कि जब प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञान्तर इनको पृथक्पृथक् निग्रह स्थान स्वीकार किया है तो उद्योतकर प्रतिज्ञाविरोध के समान हेतुविरोध, दृष्टान्तविरोध को भी स्वतंत्र निग्रह स्थान स्वीकार क्यों नहीं करते हैं? उनको भी स्वीकार करना चाहिए // 158-159 // हेतु विरोध और दृष्टान्त विरोध को स्वीकार करना नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत संख्या का विघातक है। इसलिए इनका नैयायिकों की आम्नायानुसार स्वीकृत चौबीस निग्रह स्थानों में अन्तर्भाव कर लेना भी विरोध युक्त है। अर्थात् हेतु विरोध, दृष्टान्त विरोध आदि का यदि प्रतिज्ञा विरोध में अन्तर्भाव किया जाता है, तो प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञान्तरविरोध का भी प्रतिज्ञाहानि में अन्तर्भाव कर लेना चाहिए।१६०॥ यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित प्रतिज्ञा को प्रतिज्ञाविरोध कहा जाता है, तब तो स्पष्ट रूप से प्रतिज्ञाहानि ही प्रकारान्तर से प्रतिज्ञाविरोध सिद्ध होती है। इसलिए प्रतिज्ञाविरोध को पृथक् निग्रहस्थान मानने पर दृष्टान्त विरोध, हेतु विरोध, उपनय विरोध, निगमन विरोध, प्रत्यक्ष विरोध, अनुमान विरोध आदि को भी पृथक्-पृथक् निग्रह स्थान मानना पड़ेगा। तथा प्रतिकूल ज्ञान की श्रुति का वहाँ अभाव होने से उन दृष्टान्त विरोध, हेतु विरोध, आदि निग्रह स्थानों के बाधा का अभाव है॥१६१-१६२॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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