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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 178 मर्यादातिक्रमाभावहेतुत्वाद्बोध्यशक्तितः। प्रसिद्धप्रभावात्तादृग्विनेयजनवडुवम् // 18 // स्वयं बुद्धः प्रवक्ता स्यात् बोध्यसंदिग्धधीरिह / तयोः कथं सहैकत्र सद्भाव इति चाकुलं // 19 // प्राश्निकत्वप्रवक्तृत्वसद्भावस्यापि हानितः। स्वपक्षरागौदासीनविरोधस्यानिवारणात् // 20 // पूर्वं वक्ता बुधः पश्चात्सभ्यो न व्याहतो यदि। तदा प्रबोधको बोध्यस्तथैव न विरुध्यते // 21 // वक्तृवाक्यानुवदिता स्वस्य स्यात्प्रतिपादकः / तदर्थं बुध्यमानस्तु प्रतिपाद्योनुमन्यताम् // 22 // तथैकांगोपि वादः स्याच्चतुरंगो विशेषतः / पृथक् सभ्यादिभेदानामनपेक्षाच्च सर्वदा॥२३॥ क्योंकि सभापति का कार्य है मर्यादा का उल्लंघन नहीं करने देना / मर्यादा के अतिक्रमण के अभाव का हेतु होने से महेश्वर सभापति भी हो सकता है। क्योंकि सभापति के लिए उपयोगी प्रभाव भी महेश्वर में प्रसिद्ध है। तथा विनयशील शिष्य के समान ज्ञान प्राप्त करने योग्य शक्ति वाला होने से शिष्य भी हो सकता है। तथा ऐसे प्रसिद्ध प्रभाव से युक्त होने से वह महेश्वर शिष्य भी है॥१८॥ जो स्वयंबुद्ध होता है, वह प्रवक्ता होता है और बोध कराने योग्य पठनीय विषय में सन्देहबुद्धि को धारण करने वाला शिष्य होता है। अत: यहाँ शिष्य और गुरु का एक साथ सद्भाव कैसे पाया जा सकता है? यह कथन एकान्तवादियों को आकुलता का उत्पादक है। क्योंकि एक ही ईश्वर व्याख्याता और शिष्य दोनों नहीं हो सकता है॥१९॥ जिस प्रकार महेश्वर में प्रतिपादकत्व और प्रतिपाद्यत्व दो धर्म एक साथ नहीं रहते हैं, उसी प्रकार महेश्वर के प्राश्निकत्व और प्रवक्तृत्व के सद्भाव की हानि (अभाव) है। क्योंकि प्रवक्ता को अपने पक्ष का. राग होता है और प्रानिक जन दोनों पक्षों में उदासीन रहते हैं। अत: एक ही पुरुष में स्वपक्ष का राग और परपक्ष की उदासीनता के विरोध का निवारण नहीं हो सकता // 20 // यदि नैयायिक कहें कि एक ही पुरुष पूर्व अवस्था में प्रवक्ता होता है, वही मानव दूसरे समय में सभ्य (प्राश्निक वा मध्यस्थ) हो जाता है, इसमें व्याघात दोष नहीं आता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो प्रबोधक (गुरु) वा प्रबन्धक सभापति और बोध्य (शिष्य) वा प्रतिवादी भी एक ही पुरुष हो जायेगा। इसमें भी कोई विरोध नहीं आयेगा अर्थात् इसमें अनेकान्त की सिद्धि हो जायेगी।॥२१॥ इस कथन से एक ही वक्ता (तत्त्वों का विवेचन करने वाला) अपने वाक्यों का अनुवादन करने वाला होने से प्रतिपादक है और स्वयं अर्थ को समझने वाला होने से प्रतिपाद्य (शिष्य) भी है अर्थात् एक ही मानव प्रतिपाद्य और प्रतिपादक दोनों ही अवस्थाओं को धारण कर रहा है, ऐसा मानना चाहिए // 22 // इस प्रकार एक अंग वाला भी चार अंग वाला हो जाता है। पृथक् - पृथक् वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति आदि भेदों की अपेक्षा न होने से एकांग वाला भी वाद अविशेषता से चतुरंग हो जाता है // 23 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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