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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 173 सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने / स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननयाः स्थिताः॥१६॥ वै नीयमानवस्त्वंशाः कथ्यतेऽर्थनयाश्च ते। त्रैविध्यं व्यवतिष्ठते प्रधानगुणभावतः // 97 // किं पुनरमीषां नयानामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिराहोस्वित्प्रतिविशेषोस्तीत्याहयत्र प्रवर्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नयः। पूर्वपूर्वो नयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते // 98 // सहस्रष्ट शती यद्वत्तस्यां पंचशती मता। पूर्वसंख्योत्तरत्वाभ्यां संख्यायामविरोधतः // 19 // परः परः पूर्वत्र पूर्वत्र कस्मान्नयो न प्रवर्तत इत्याह पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते। तथोत्तरनयः पूर्वनयार्थसकले सदा // 100 // का प्रकाश होना शब्द स्वरूप नयों के द्वारा सम्भव है। तथा 'नीयन्ते ये इति नयाः' - यों कर्म साधन नय शब्द की निरुक्ति करने पर.तो निश्चय से वस्तु के ज्ञात अंश वे अर्थस्वरूप नय हैं। इस प्रकार प्रधान और गौण रूप से ये नय तीन प्रकार व्यवस्थित हैं। अर्थात् - प्रधान रूप से ज्ञानस्वरूप ही नय हैं। किन्तु गौण रूप से नय वाचक शब्द को भी नय कह देते हैं। तथा गौण गौण रूप से वाच्य अर्थ को भी नय कह देते हैं। जगत् में ज्ञान, शब्द और अर्थ तीन ही पदार्थ गणनीय हैं। ___ "बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रोबुद्ध्यादिवाचिका :" ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा है। ज्ञाननय प्रमाता को स्वयं अपने लिये अर्थ का प्रकाश कराते हैं। शब्दनय दूसरों के प्रति अर्थ का प्रकाश कराते हैं। . अर्थनय तो स्वयं प्रकाशस्वरूप हैं॥९६-९७॥ इन सभी नयों की फिर क्या एक ही अर्थ में प्रवृत्ति होती है? अथवा क्या कोई विलक्षणता का सम्पादक विशेष है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं - जिस-जिस स्वार्थ को विषय करने में उत्तरवर्ती नय नियम से प्रवृत्ति करता है, उस स्वार्थ को जानने में पूर्व पूर्ववर्तीनय प्रवृत्ति करता हुआ नहीं रोका जाता है। जैसे कि सहस्र में आठसौ समा जाते हैं और उस आठ सौ संख्या में पाँच सौ गर्भित माने जाते हैं। पूर्व संख्या नियम से उत्तर संख्या में प्रवृत्ति करती है, इसमें कोई विरोध नहीं है॥९८-९९॥ - भावार्थ - व्यवहारनय द्वारा जाने गये पदार्थ में संग्रहनय और नैगम नय प्रवृत्त हो सकते हैं। कोई विरोध नहीं है। पूर्ववर्ती नयों का विषय व्यापक है और उत्तरवर्ती नयों का विषय व्याप्य है। पूर्ववर्ती नय उत्तरवर्ती नय का जनक है। - उत्तर-उत्तरवर्ती नय पूर्व-पूर्व के नयों के विषयों में कैसे प्रवृत्ति नहीं करते हैं? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं - ___ जिस प्रकार उत्तर उत्तरवर्तिनी संख्या यथायोग्य चली आरही पूर्व-पूर्व की संख्याओं में अनुवर्तन नहीं करती है, उसी प्रकार उत्तरवर्ती नय पूर्ववर्ती नयों के परिपूर्ण विषय में सदा प्रवृत्ति नहीं करते हैं। अर्थात् जैसे पाँच सौ में पूरे आठ सौ नहीं रहते हैं, उसी प्रकार पूर्व नयों के व्यापक विषयों में अल्पग्राहिणी उत्तरवर्ती नय प्रवृत्ति नहीं करते हैं // 10 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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