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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 172 सर्वाः परस्परविरुद्धार्थयोर्द्वयोर्नवभेदप्रभेदयोरेकतरस्य स्वविषयविधौ तत्प्रतिपक्षस्य नयस्यावलंबनेन तत्प्रतिषेधे मूलभंगद्वयकल्पनया यथोदितन्यायेन तदुत्तरभंगकल्पनया च प्रतिपर्यायमवगंतव्याः। पूर्वोक्तप्रमाणसप्तभंगीवत्तद्विचारश्च कर्तव्यः। प्रतिपादितनयसप्तभंगीष्वपि प्रतिभंगं स्यात्कारस्यैवकारस्य च प्रयोगसद्भावात्। तासां विकलादेशत्वादेश्च सकलादेशत्वादेस्तत् सप्तभंगीतः सकलादेशात्मिकाया विशेषव्यवस्थापनात्। येन च कारणेन सर्वनयाश्रयाः सप्तधा वचनमार्गाः प्रवर्तते। पर दो मूल भंगों की कल्पना करके पूर्व में कही गयी यथायोग्य न्याय पद्धति से और उन दो के उत्तरवर्ती पाँच भंगों की कल्पना करके प्रत्येक पर्याय में सप्तभंगियाँ समझ लेनी चाहिए। अर्थात् - नैगम के नौ भेदों में परस्पर अथवा संग्रह आदि के उत्तर भेदों के अनुसार दो मूल भंगों को बनाते हुए सैकड़ों सप्तभंगियाँ बनायी जा सकती हैं। प्रश्नवश एक वस्तु में विधि निषेधों की व्यस्त और समस्त रूप के द्वारा कल्पना करना सप्तभंगी है। अर्थ पर्याय नैगम की अपेक्षा विधि की कल्पना कर और पर संग्रह का अवलम्ब लेकर निषेध की कल्पना करके दो मूल भंगों के द्वारा सप्तभंगी बना लेना। पूर्व प्रकरणों में कही गयी प्रमाण सप्तभंगियों के समान नय सप्तभंगियों का विचार भी कर लेना चाहिए। अर्थात् - "प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र में अड़तालीसवीं वार्त्तिक से छप्पनवीं वार्तिक तक प्रमाणसप्तभंगी का जिस प्रकार विचार किया गया है, उसी प्रकार का नय सप्तभंगी का विचार यहाँ करना चाहिए। प्रमाण सप्तभंगी में अन्य धर्मों की अपेक्षा रहती है और नय सप्तभंगी में अन्य धर्मों की उपेक्षा रहती है। उक्त सभी नय सप्तभंगियों में प्रत्येक भंग के साथ कथंचित् को कहने वाले स्यात्कार का और व्यवच्छेद को करने वाले एवकार के प्रयोग का सद्भाव पाया जाता है। ‘स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः' - सत्य की छाप स्यात्कार है और दृढ़ता का बोधक एवकार है। उन नय सप्तभंगियों को विकलादेश शब्दपना, विकलज्ञानपना तथा विकल अर्थपना आदि है। किन्तु प्रमाण सप्तभंगियों को सकलादेश शब्दपना आदि है। इस कारण सकलादेशस्वरूप उस प्रमाण सप्तभंगी से इस नयसप्तभंगी के विशेष हो जाने की व्यवस्था है अर्थात् अनन्त सप्तभंगियों के विषय हो रहे अनन्त धर्मसप्तक स्वभाव वस्तु का काल, आत्मरूप आदि के द्वारा अभेदवृत्ति या अभेद उपचार का प्रकाशक वाक्य सकलादेश है और एक सप्तभंगी के विषयभूत स्वभावों का प्रकाशक वाक्य विकलादेश है। जिस कारण से वस्तु स्वभावों के अनुसार सात प्रकार के संशय, जिज्ञासा और प्रश्न उठते हैं, इसी कारण सम्पूर्ण नयों के अवलम्बनभूत सात प्रकार के ही वचन मार्ग हैं। न्यून और अधिक वाक्यों की सम्भावना नहीं है। ___ अत: ये सभी नय दूसरे श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करने पर तो शब्दस्वरूप नय हैं और ज्ञान करने वाले आत्मा को स्वार्थों का प्रकाश करने की विवक्षा होने पर ये सभी नय ज्ञानस्वरूप व्यवस्थित हैं। ‘नीयतेऽनेन इति नयः' यह करणसाधन व्युत्पत्ति करने पर उक्त अर्थ लब्ध हो जाते हैं। स्वयं आत्मा को ज्ञान और अर्थ का प्रकाश तो ज्ञान स्वरूप नयों के द्वारा है और दूसरों के प्रति ज्ञान और अर्थ
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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