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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 157 यो यं क्रियार्थमाचष्टे नासावन्यत्क्रियं ध्वनिः। पठतीत्यादिशब्दानां पाठाद्यर्थत्वसंजनात् // 79 // न हि कश्चिदक्रिया शब्दोस्यास्ति गौरश्व इति जातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वात् आशुगाम्यश्व इति, शुक्लो नील इति गुणशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव / शुचिभवनाच्छुक्ल: नीलानान्नील इति देवदत्त इति यदृच्छाभिः शब्दाभिमता: अपि क्रियाशब्दा एव देव एव देयादिति देवदत्त: यज्ञदत्त इति / संयोगिद्रव्यशब्दाः समवायिद्रव्यशब्दाभिमताः क्रियाशब्दा एव / दंडोस्यास्तीति दंडी, विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यादि पंचतयी तु शब्दानां प्रवृत्तिः व्यवहारमात्रान्न निश्चयादित्ययं मन्यते॥ न्याय से स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग तीनों जाति के गौ पकड़े जाते हैं। किन्तु एवंभूत नय तो उस प्रकार की सामर्थ्य रखने की क्रिया करने रूप परिणति को प्राप्त अर्थ को ही उस क्रिया के अवसर में शक्र' कहने का अभिप्राय रखता है। पूजा करते समय, अभिषेक करते समय आदि अन्य कालों में ‘शक्र' इस नामकथन का अभिप्राय नहीं रखता है। किस कारण से यह व्यवस्था है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं - जो वाचक शब्द क्रिया के जिस अर्थ को व्यक्त कर रहा है, वह शब्द अन्य क्रिया के अर्थ को नहीं कह सकता। अन्यथा पढ़ रहा है, खा रहा है इत्यादि शब्दों को पढ़ना, पचाना आदि अर्थ के वाचकपन का प्रसंग आयेगा। अर्थात् - जो छात्र पढ़ रहा है, वह उसी समय पढ़ाने वाला अध्यापक नहीं है। धान्य पक रहा है, अग्नि या आतप पका रहा है। वाच्य क्रिया में परिणत अर्थ एवंभूत नय द्वारा कहा जाता है।॥७९॥ जगत् में ऐसा कोई भी शब्द नहीं है जो कि क्रिया का वाचक नहीं हो। गो, अश्व आदि शब्द जाति को कहने वाले स्वीकार कर लिये गये हैं। वे भी क्रियाशब्द ही हैं। (क्रियारूप अर्थों को ही कह रहे हैं।) शीघ्र गमन करने वाला अश्व कहा जाता है अश भोजने' धातु से अश्व शब्द बनाने पर खाने वाला कहा जाता है। गमन करने वाला पदार्थ गौ कहा जाता है। जो शुक्ल, नील, रस आदि शब्द गुणवाचक स्वीकार किये गये हैं वे भी क्रियाशब्द ही हैं। 'शुचि होना यानी पवित्र हो जाना क्रिया से शुक्ल है।' नील रंगने रूप क्रिया से नील है। रसा जाय यानी चखना रूप क्रिया से रस माना गया है। इसी प्रकार यदृच्छा शब्दों के द्वारा स्वीकार किये गये देवदत्त, यज्ञदत्त इत्यादि शब्द भी क्रियाशब्द ही हैं। लौकिक जन की इच्छा के अनुसार बालक, पशु आदि के जो मनचाहे नाम रख लिये जाते हैं, वे देवदत्त आदि यदृच्छाशब्द हैं। देव ही जिसको देवे वह पुरुष इस क्रिया अर्थ का धारक देवदत्त है। यज्ञ में जिस बालक को दिया जा चुका है, यों वह यज्ञदत्त है। इस प्रकार यहाँ भी यथायोग्य क्रियाशब्दपना घटित हो जाता है। भ्रमण, स्यन्दन, गमन, धावति, आगच्छति, पचन आदि क्रियाशब्द तो क्रिया वाचक हैं ही। संयोग सम्बन्ध से दंड जिसके पास है, वह दंडी पुरुष है। इस प्रकार की क्रिया को कहने वाला संयोग द्रव्यशब्द भी क्रियाशब्द ही है। तथा समवाय सम्बन्ध से सींग रूप अवयव जिस अवयवी बैल या महिष के हैं, वह विषाणी है। इत्यादि प्रकार मान लिये गये समवायी
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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