SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 156 विभिन्नशब्दत्वं तद्व्याप्यं साधनं विभिन्नार्थ एव साध्यस्ति नोभिन्नार्थत्वे, ततोन्यथानुपपत्तिरस्त्येव हेतोः॥ संप्रत्येवंभूतं नयं व्याचष्टेतक्रियापरिणामोर्थस्तथैवेति विनिश्चयात्। एवंभूतेन नीयेत क्रियांतरपराङ्मुखः // 78 // . समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रेति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढेः सद्भावात्। एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा॥ कुत इत्याह अथवा सदृश स्वरूप करके भिन्न हो रहे ग्यारह गो शब्दों में भी वह वाणी आदि भिन्न अर्थपना साध्य विद्यमान है। अत: वह साध्य का व्याप्य विभिन्न शब्दपना हेतु विभिन्न अर्थ रूप साध्य के होने पर ही ठहर सकता है। अभिन्न अर्थपना होने पर नहीं ठहर सकता है। उस हेतु की अन्यथानुपपत्ति है ही, समीचीन व्याप्ति को रखने वाला हेतु अवश्य साध्य को साध देता है। भावार्थ - नाना अर्थों का उल्लंघन कर एक अर्थ की अभिमुखता से रूढ़ि कराने वाला होने के कारण भी यह नय समभिरूढ़ कहा जाता है। गौ यह शब्द वचन, दिशा, जल, पशु, भूमि, रोम, वज्र, आकाश, बाण, किरण, दृष्टि-इन ग्यारह अर्थों में रहता है। जितने शब्द होते हैं, उतने अर्थ होते हैं। इसी प्रकार दूसरा उपनियम यों भी है कि जितने अर्थ होते हैं, उतने शब्द भी होते हैं। ग्यारह अर्थों को कहने वाले गो शब्द भी ग्यारह हैं। गकारके उत्तरवर्ती ओकार इस प्रकार समान वर्णों की अनुपूर्वी होने के कारण एक के सदृश शब्दों को व्यवहार में एक कह दिया गया है। अतः अनेक गो शब्दों द्वारा ही अनेक वाणी आदि अर्थों की ज्ञप्ति होती है। इस नय का अर्थ की ओर लक्ष्य जाने पर अपने - अपने स्वरूपों में सम्पूर्ण पदार्थों का आरूढ़ रहना भी समभिरूढ़ नय द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। ___ अब, श्री विद्यानन्द आचार्य सातवें एवंभूत नय का व्याख्यान करते हैं। एवंभूत नय के द्वारा उसी क्रिया रूप परिणाम के धारक अर्थ का उसी प्रकार विशेष रूप से निश्चय कर लिया जाता है। अत: यह नय अन्य क्रियाओं में परिणत उस अर्थ को जानने के लिए अभिमुख नहीं होता है। अर्थात् जिस समय जो कार्य कर रहा है, उसी समय वह उस कार्य का कर्ता कहा जाता है। जिस धातु से जो शब्द बना है, उस धातु के अर्थ अनुसार क्रियारूप परिणमते क्षण में ही वह शब्द कहा जा सकता है। एवंभूत नय अन्य क्रियारूप परिणमित अर्थ से पराङ्मुख रहता है।।७८॥ ___ समभिरूढ़नय तो जम्बूद्वीप के परिवर्तन की सामर्थ्य धारणरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर देवों के राजा इन्द्र रूप अर्थ का शक्र इस शब्द करके व्यवहार करने का अभिप्राय रखता है। जैसे कि गाय रूप पशु की गमन क्रिया के होने पर अथव गमन क्रिया के नहीं होने पर बैठी अवस्था में भी गौ का व्यवहार हो जाता है, क्योंक उस प्रकार रूढि का सद्भाव है अर्थात् दूसरे ईशान, सनत्कुमार आदि इन्द्र या अहमिन्द्र भी जम्बूद्वीप के पलटने की शक्ति रखते हैं, फिर भी शक्र शब्द सौधर्म इन्द्र में रूढ़ है। इस निरुक्ति से गौः शब्द भी बैठी हुई, चलती हुई, सोती हुई आदि सभी अवस्थाओं के धारक बैल में रूढ़ है। गोवलीवर्द
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy