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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 148 साधनस्य पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वानुपपत्तेः। कल्पनारोपितस्य साध्यसाधनभावस्येष्टेरदोष इति चेन्न; बहिरर्थत्वकल्पनायाः साध्यसाधनधर्माधारानुपपत्तेः. क्वचिदप्याधाराधेयतायाः संभवाभावात। किं च. संयोगविभागाभावो द्रव्याभावात् क्रियाविरहश्च ततो न कारकव्यवस्था यत: किंचित्परमार्थतोऽर्थक्रियाकारि वस्तु स्यात्। सदृशेतरपरिणामाभावश्च परिणामिनो द्रव्यस्यापह्नवात्। ततः स्वपरसंतानव्यवस्थितिविरोधः सदृशेतरकार्यकारणानामत्यंतमसंभवात् / समुदायायोगश्च, समुदायिनो द्रव्यस्यानेकस्यासमुदायावस्थापरित्यागपूर्वकसमुदायावस्थामुपाददानस्यापह्नवात्। तत एव न प्रेत्यभावः शुभाशुभानुष्ठानं तत्फलं.च पुण्यं पापं बंधो वा व्यवतिष्ठते यतो संसारमोक्षव्यवस्था तत्र स्यात्, सर्वथापीष्टस्याप्रसिद्धः। संवृत्या हि नेष्टस्य सिद्धिः संवृतेम॒षात्वात् / नापि परमार्थतः पारमार्थिकैकद्रव्यसिद्धिप्रसंगात् तदभावे तदनुपपत्तेरिति परीक्षितमसकृद्विद्यानंदिमहोदये।। समानाधिकरणपना बनता है, अन्यथा नहीं। तथा कल्पना से आरोपित साध्यसाधन भाव अभीष्ट है। अत: कोई दोष नहीं है। ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। क्योंकि बहिरंग अर्थपने की कल्पना को साध्यधर्म और साधनधर्म का आधार नहीं माना जा सकता है। तुम्हारे यहाँ कहीं भी वास्तविक रूप से आधार आधेय भाव की सम्भावना नहीं मानी गई है। अर्थात् क्वचित् मुख्य रूप से सिद्ध पदार्थ का अन्यत्र उपचार कर लिया जा सकता है। सर्वथा कल्पित पदार्थ किसी का आधार नहीं हो सकता है। अत: क्षणिक पक्ष में आधारआधेय भाव नहीं बन सकता है। किंच बौद्धों के यहाँ द्रव्य का अभाव होने से संयोग और विभाग का अभाव हो जाता है, तथा क्षणिक पक्ष में क्रिया का विरह है, इसलिए क्रिया की अपेक्षा होने वाले कारकों की व्यवस्था नहीं हो पाती है जिससे कि कोई वस्तु वास्तविक रूप से अर्थक्रिया को करने वाली हो सकती है। तथा, बौद्धों के यहाँ परिणामी द्रव्य का अपह्नव करने से सदृश परिणाम और विसदृश परिणाम का अभाव हो जाता है और ऐसा हो जाने से अपने पूर्व अपर क्षणों के संतान की व्यवस्था का और दूसरों के चित्तों के सन्तान की व्यवस्था कर देने का विरोध आता है। क्योंकि द्रव्य के अभाव में सदृश कार्य कारणों और विसदृश कार्य कारणों का होना क्षणिक सिद्धान्त में अत्यंत असम्भव है, तथा क्षणिक पक्ष में समुदाय नहीं बन सकता है। क्योंकि अनेक में स्थिर और असमुदाय अवस्था के परित्यागपूर्वक समुदाय अवस्था को ग्रहण करने वाले एक समुदायीद्रव्य का अपह्नव किया गया है। अत: एक अन्वेता द्रव्य के नहीं स्वीकार करने से बौद्धों के यहाँ मरकर जन्म लेना या शुभ, अशुभ कर्मों का अनुष्ठान करना अथवा उन शुभाशुभ कर्मों का फल पुण्य, पाप प्राप्त होना, तथैव उन पुण्य, पाप का आत्मा के साथ बन्ध हो जाना आदि की व्यवस्था नहीं हो सकती है जिससे कि उस क्षणिक पक्ष में संसार और मोक्ष की व्यवस्था बन सके अर्थात् मोक्ष और संसार की व्यवस्था भी नहीं हो सकती, सभी प्रकारों से इष्ट पदार्थों की प्रसिद्धि नहीं हो सकती। अत: बौद्धों के विचार कुनय व्यावहारिक कल्पना से तो बौद्धों के यहाँ इष्ट पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि संवृति को झूठा माना गया है। और वास्तविक रूप से भी इष्ट तत्त्वों की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि ऐसा मानने पर परमार्थभूत एक अन्वित त्रिकालवर्ती द्रव्य की सिद्धि हो जाने का प्रसंग आयेगा। उस परिणामी अन्वेता द्रव्य को नहीं मानने पर वास्तविक इष्ट धर्मोपदेश, साध्यसाधनभाव, प्रेत्यभाव, बन्ध, मोक्ष आदि इष्टपदार्थों की सिद्धि नहीं हो सकेगी की इस सिद्धांत की 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रन्थ में कई बार परीक्षा कर चुके है अर्थात् कितनी ही बार इनका कथन कर दिया है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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