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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 137 अर्थव्यंजनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधतः // 35 // भिन्ने तु सुखजीवित्वे योभिमन्येत सर्वथा। सोर्थव्यंजनपर्यायनैगमाभास एव नः॥३६॥ शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रैति यो नयः। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारजः // 37 // सद्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् / इत्येवमवगंतव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नयः // 38 // यस्तु पर्यायवद्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः। व्यवहारनयाजातः सोऽशुद्धद्रव्यनैगमः // 39 // तभेदैकान्तवादस्तु तदाभासोनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरन्तश्च प्रत्यक्षादिविरोधतः॥४०॥ अपने आश्रय के साथ कथंचित् अभेद है। अत: ऐसी दशा में सर्वथा भेद कथन करते रहने से नैयायिक को विरोध दोष आता है॥३४॥ ___धर्मात्मा पुरुष में सुखपूर्वक जीवन प्रवर्त रहा है' इत्यादि प्रयोगों के अनुरोध से तीसरा नैगम नय अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय दोनों को विषय करता है॥३५॥ जो प्रतिवादी सुख और जीवन को सर्वथा भिन्न मान रहा है, अथवा आत्मा से भिन्न दोनों की कल्पना कर रहा है, वह तो हमारे यहाँ अर्थव्यंजन पर्याय का आभास है अतः यह अर्थव्यंजनपर्याय नैगमाभास यानी यह झूठा नय, कुनय है॥३६॥ ___ पर्यायनैगम के तीन भेदों का लक्षण और उदाहरण दिखलाकर अब द्रव्य नैगम के भेद और उदाहरणों को दिखाते हैं कि जो नय शुद्ध द्रव्य या अशुद्ध द्रव्य को जानने का अभिप्राय रखता है, वह नय तो संग्रह और व्यवहार से उत्पन्न हुआ नैगमनय ही कहा जाता है।॥३७॥ उसी प्रकार अन्वय का विशेषरूप करके निश्चय हो जाने से सम्पूर्ण वस्तुओं को सत् द्रव्य (इस प्रकार) कहने वाला अभिप्राय शुद्ध द्रव्य नैगम है। क्योंकि सभी पदार्थों में किसी भी स्वकीय परकीय भावों की अपेक्षा नहीं करके सत्पने या द्रव्यपने का अन्वय जाना जा रहा है। संग्रह नय के अनुसार यह नैगम नय दो धर्मियों को प्रधानं गौण रूप से विषय कर रहा है। अतः सत्स्वरूप और द्रव्यपने के सर्वथा भेद रूप को कहने वाला नय दुर्नय हो जाता है। अर्थात् - वैशेषिक सत्त्व और द्रव्यत्व को परस्पर में भिन्न मानते हैं और जातिमान् का जातियों से भेद स्वीकार करते हैं। यह उनका शुद्ध द्रव्य नैगमाभास है॥३८॥ ____ जो नय ‘पर्यायवान् द्रव्य है' अथवा 'गुणवान् द्रव्य है', इस प्रकार निर्णय करता है, वह नय तो व्यवहारनय से उत्पन्न हुआ अशुद्ध द्रव्य नैगम है। व्यवहार नय केवल एक ही धर्म या धर्मी को जानता है। किन्तु यह अशुद्ध द्रव्य नैगम नय तो धर्म,धर्मी दोनों को विषय करता है॥३९।। - पर्याय और पर्यायवान् का एकान्त रूप से भेद मानते रहना अथवा उन गुण और गुणी का सर्वथा भेद स्वीकार करने का पक्ष रखना उस अशुद्ध द्रव्य नैगम का आभास माना जाता है। क्योंकि बहिरंग घट, रूप, पट, पटत्व आदि तथा आत्मा ज्ञान, आदि अन्तरंग पदार्थों में इस प्रकार भेद कहते रहने से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरोध आता है॥४०॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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