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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 136 अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावतः / क्वचिद्वस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते // 28 // यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिणः / इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुणः // 29 // संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम्। प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचोगतिः॥३०॥ सर्वथा सुखसंवित्त्योर्नानात्वेभिमतिः पुनः / स्वाश्रयाच्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतितः // 31 // कश्चिद्व्यंजनपर्यायौ विषयीकुरुतेंजसा। गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगमः // 32 // . सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावतः। प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धितः॥३३॥ तयोरत्यंतभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि। ज्ञेयो व्यंजनपर्यायनैगमाभो विरोधतः // 34 // अर्थव्यंजनपर्यायनैगम ये तीन प्रभेद हैं। और दूसरे द्रव्यनैगम के शुद्ध द्रव्यनैगम, अशुद्धद्रव्यनैगम ये दो प्रभेद हैं। तथा तीसरे द्रव्यपर्याय नैगम के शुद्ध द्रव्य पर्यायनैगम, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्यपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्यायनैगम - ये 4 भेद हैं। इस प्रकार नैगम के नौ और संग्रह आदि छह इस प्रकार नयों के पन्द्रह भेद हो जाते हैं // 27 // उनमें से नैगम के पहिले प्रभेद का उदाहरण इस प्रकार है कि किसी एक वस्तु में दो अर्थपर्यायों को गौण मुख्यस्वरूप से जानने के लिए नयज्ञानी प्रतिपत्ता का अभिप्राय उत्पन्न हो जाता है। जैसे कि शरीरधारी आत्मा का सुखसंवेदन प्रतिक्षण नाश को प्राप्त हो रहा है। यहाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सत्तारूप अर्थपर्याय तो विशेषण हो जाने से गौण है और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्यपना होने के कारण मुख्यता को प्राप्त है, यह यहाँ अभिप्रेत है, अन्यथा (भिन्न प्रकार कथन द्वारा) ज्ञप्ति नहीं हो सकेगी। ____ भावार्थ - ‘आत्मनः सुखसंवेदनं क्षणिकं' - यहाँ आत्मा का सुख संवेदन क्षण क्षण में उत्पाद व्यय को प्राप्त हो रहा है यह नैगमनय ने जाना। यहाँ संवेदन नामक अर्थपर्याय को विशेष्य होने के कारण मुख्य रूप से जाना गया है और प्रतिक्षण उत्पाद व्ययरूप अर्थपर्याय को विशेषण होने के कारण नैगम नय द्वारा गौण रूप से जाना गया है। अन्यथा उक्त प्रयोग कैसे भी नहीं बन सकता था॥२८-२९-३०॥ सर्वथा परस्पर में सुख और संवेदन के नानापन में अभिप्राय रखना, अथवा स्वाश्रित अत्मा से सुख और ज्ञान का भेद मानने का आग्रह रखना, अर्थपर्याय नैगम का आभास है। क्योंकि एक द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ सर्वथा भेद रहना प्रतीत नहीं होता है॥३१॥ ___कोई नैगम नय का प्रभेद एक धर्मी में गौण, प्रधानपने से दो व्यंजन पर्यायों को निर्दोष विषय कर लेता है, जैसे कि ‘आत्मनि सत् चैतन्यं' - आत्मा में सत्त्व है, और चैतन्य है। इस प्रकार यहाँ विशेषण हो रही सत्ता की गौण रूप से ज्ञप्ति है और विशेष्य हो रहे चैतन्य की भी प्रधानभाव से सर्वतः ज्ञप्ति सिद्ध हो रही है। अत: दोनों भी व्यंजन पर्यायों को यह नैगम नय विषय कर रहा है। (सूक्ष्म पर्यायों को अर्थपर्याय कहते हैं और व्यक्त पर्यायें व्यंजन पर्यायें हैं)॥३२-३३ / / सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यन्त भेद कहना अथवा अपने अधिकरण स्वरूप आत्मा से भी सत्ता और चैतन्य का अत्यन्त भेद कहना व्यंजनपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि, गुणों का परस्पर में और
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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