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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*१२९ प्रमाणगोचरार्थांशा नीयंते यैरनेकधा। ते नया इति व्याख्याता जाता मूलनयद्वयात् // 9 // द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषपरिबोधकाः। न मूलं नैगमादीनां नयाश्चत्वार एव तत् // 10 // सामान्यस्य पृथक्त्वेन द्रव्यादनुपपत्तितः। सादृश्यपरिणामस्य तथा व्यंजनपर्ययात् // 11 // वैसादृश्यविवर्तस्य विशेषस्य च पर्यये। अंतर्भावाद्विभाव्येत द्वौ तन्मूलं नाविति // 12 // से द्रव्य और पर्याय के साथ तदात्मक हो रहे वस्तु को प्रमाण ज्ञान विषय करता है। उस अखंड पिंड रूप वस्तु से बुद्धि द्वारा पृथक् भाव को प्राप्त किया गया केवल नित्य अंश द्रव्य तो द्रव्यार्थिक नय का विषय है और प्रमाण के विषय हो रहे वस्तु से ज्ञान द्वारा अपोद्धार (पृथग् भाव) किया गया केवल पर्याय (मात्र) पर्यायार्थिक नय का विषय है। अब नयों के द्वारा जानने योग्य द्रव्य और पर्यायों से अन्य कोई तीसरा 'तद्वान्' पदार्थ शेष नहीं रह जाता है, जिसको कि विशेष रूप से जानने के लिए तीसरा मूल नय स्वीकार किया जावे अर्थात् जो वस्तु प्रमाण से जानी जा रही है, वह तो प्रमेय है। अंशों को जानने वाले नयों द्वारा 'नेय' नहीं है। जैन सिद्धान्त अनुसार द्रव्य और पर्यायों से कथंचित् भेद, अभेद, आत्मक वस्तु गुम्फित हो रही है। अत: ऐसा सिद्धान्त बन जाता है जो इस प्रकार है - प्रमाण के विषयभूत अर्थ के अनेक अंश जिनके द्वारा जान लिये जाते हैं, वे ज्ञान नय हैं। वे नय मूलभूत द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नयों से प्रतिपन्न अनेक प्रकार के कहे जाते हैं॥९॥ _ नैगम आदि सात नयों के मूल कारण द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नय हैं, किन्तु द्रव्य को, पर्याय को, सामान्य को और विशेष को चारों ओर से समझाने वाले चार नय ही नैगम आदि के मूल कारण नहीं हैं। अत: सामान्यार्थिक नय मानना आवश्यक नहीं है। द्रव्य से पृथक् सामान्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि जैन सिद्धान्त में अनेक समानजातीय पदार्थों के सदृश परिणाम को सामान्य पदार्थ माना जाता है और उस प्रकार का सदृश परिणाम द्रव्य की व्यंजन पर्याय है। अनेक सदृश परिणामों का पिंड सामान्य पदार्थ तो द्रव्यार्थिक नय द्वारा ही जान लिया जाता है। अत: सामान्यार्थिक कोई तीसरा नय नहीं है। - धेनु आदि अनेक गौओं में रहने वाले गोत्व के समान तिर्यक् सामान्य अनेक घट, कलश आदि में सदृश परिणामरूप से रहता है। यह द्रव्यस्वरूप ही है। तथा द्रव्य की पूर्वापर पर्यायों में व्यापने वाला ऊर्ध्वता सामान्य है। जैसे कि स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में मृत्तिका ऊर्ध्वता सामान्य है। अथवा बाल्य, कुमार, यौवन, नारकी, पशु, देव, आदि पर्यायों में आत्मा द्रव्य ऊर्ध्वता सामान्य है। ये दोनों सामान्य द्रव्य स्वरूप हैं। अतः द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। तथैव विसदृश परिणाम विशेष का पर्याय में अन्तर्भाव हो जाता है। अत: विशेष का पर्यायार्थिक नय द्वारा भान हो जाएगा.। चौथे विशेषार्थिक नय के मानने की आवश्यकता नहीं है। ये सभी विशेष पर्यायों में अन्तर्भूत हो जाते हैं। इस कारण उन द्रव्य और पर्यायों को मूल कारण मानकर उत्पन्न हुए द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो ही मूल नय हैं। चार मूल नय नहीं हैं॥१०-११-१२॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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