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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 128 विशेषवचनस्य चत्वारो नयाः स्युः, पर्यायविशेषगुणस्येव द्रव्यविशेषशुद्धद्रव्यस्य पृथगुपादानप्रसंगात्। ननु च द्रव्यपर्याययोस्तद्वांस्तृतीयोस्ति तद्विषयस्तृतीयो मूलनयोऽस्तीति चेत् न, तत्परिकल्पनेऽनवस्थाप्रसंगात् द्रव्यपर्यायस्तद्वतामपि तद्वदंतरपरिकल्पनानुषक्तेर्दुर्निवारत्वात् / यदि तु यथा तंतवोवयवास्तद्वानवयवी पटस्तयोरपि तंतुपटयो न्योस्ति तद्वांस्तस्याप्रतीयमानत्वात्। तथा पर्यायाः स्वभावास्तद्वद् द्रव्यं तयोरपि नान्यस्तद्वानस्ति प्रतीतिविरोधादिति मतिस्तदा प्रधानभावेन द्रव्यपर्यायात्मकवस्तुप्रमाणविषयस्ततोपोद्धृतं / द्रव्यमानं द्रव्यार्थिकविषयः पर्यायमानं पर्यायार्थिकविषय इति न तृतीयो नयविशेषोस्ति यतो मूलनयस्तृतीयः स्यात्। तदेवम् नेय विषय नहीं है जैसे कि शुद्ध द्रव्य कोई अलग विषय नहीं है। द्रव्यार्थिक नय से ही शुद्ध, अशुद्ध सभी द्रव्यों का ज्ञापन हो जाता है। अतः विषयों को जानने वाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक - ये दो नय ही पर्याप्त हैं। नयों के भेदों का संक्षेप से कथन नहीं करने की विवक्षा करने पर विशेषों को कहने वाले वचन बहुवचन 'नया:' बनाकर चार नय हो सकेंगे। पर्याय के विशेष गुण को जानने के लिए गुणार्थिक नय पृथक् माना जायेगा तो द्रव्य के विशेषभूत शुद्ध द्रव्य को विषय करने वाले शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के पृथक् ग्रहण करने का प्रसंग आयेगा। इस प्रकार थोड़े से विषयों को लेकर नयों के चाहे कितने भी भेद किये जा सकते शंका - द्रव्य और पर्यायों का मिलकर उन दोनों से सहित हो रहा पिंड एक तीसरा विषय बन जाता है। उसको विषय करने वाला तीसरा एक द्रव्यपर्यायार्थिक भी मूल नय होना चाहिए। ___समाधान - ऐसा नहीं कहना क्योंकि यदि इस प्रकार उन नयों की कल्पना की जायेगी, तब तो अनवस्था दोष हो जाने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि द्रव्य और पर्याय तथा उन दोनों को आश्रय - इन तीनों को मिलाकर एक नया विषय भी हो सकता है। अत: उन तीनों वाले अलग अन्य विषय को ग्रहण करने वाले अलग-अलग नयोंकी कल्पना करने के प्रसंग का निवारण कैसे भी नहीं किया जा सकता है अर्थात् जैन सिद्धान्त अनुसार द्रव्य अनेक हैं। एक-एक द्रव्य में अनन्त गुण हैं। एक गुण में त्रिकाल सम्बन्धी अनन्त पर्यायें हैं। अथवा वर्तमान काल में भी अनेक आपेक्षिक पर्यायें हैं। अनुजीवी गुण की एक-एक पर्याय में अनेक अविभाग प्रतिच्छेद हैं। न जाने किस-किस अनिर्वचनीय निमित्त से किस-किस गुण के कितने परिणाम हो रहे हैं। इस प्रकार सम्मेलन कर अनेक विषय बनाये जा सकते हैं। ऐसी दशा में नियत विषयों को जानने वाले नयों की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। जिस प्रकार तन्तु तो अवयव हैं और उन तन्तुरूप अवयवों से सहित एक अलग अवयवी पट द्रव्य है। फिर उन दोनों तन्तु और पट का भी तद्वान् कोई तीसरा आश्रय नहीं है। क्योंकि तीसरे अधिकरण की प्रतीति नहीं हो रही है। उसी प्रकार पर्यायें तो स्वभाव हैं। और उन पर्यायों से सहित पर्यायवान् द्रव्य है। किन्तु फिर उन दोनों पर्याय और द्रव्यों का उनसे सहित होता हुआ कोई पृथक् अधिकरण नहीं है। क्योंकि प्रतीतियों से विरोध आता है। अतः तन्तुवान् पट का जैसे कोई पृथक् अधिकरण नहीं है, उसी प्रकार द्रव्य और पर्यायों का अधिकरण भी कोई अन्य नहीं है, ऐसी मति है तब तो जैनाचार्य कहते हैं कि प्रधान रूप
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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