________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 93 तर्कश्चैवं प्रमाणं स्यात्स्मृतिसंज्ञा च किं न वः / मानसत्वाविसंवादाविशेषान्नानुमान्यथा // 168 // मानसं ज्ञानमस्पष्टं व्याप्तौ प्रमाणमविसंवादकत्वादिति वदन् कथमयं तर्कमेव नेच्छेत्? स्मरणं प्रत्यभिज्ञानं वा कुतः प्रतिक्षिपेत् / तदविशेषात् मनोज्ञानत्वान्न तत्प्रमाणमितिचेत् , नानुमानस्याप्रमाणत्वप्रसंगात्। संवादकत्वादनुमानं प्रमाणमिति चेत्, तत एव स्मरणादि प्रमाणमस्तु। न हि ततोर्थं परिच्छिद्य वर्तमानोर्थक्रियायां विसंवाद्यते प्रत्यक्षादिवत्॥ तर्कादेर्मानसेध्यक्षे यदि लिंगानपेक्षिणः। स्यादतर्भवनं सिद्धिस्ततोध्यक्षानुमानयोः॥१६९॥ यदि तर्कादेर्मानसेध्यातर्भावः स्याल्लिंगानपेक्षत्वात्ततोऽध्यक्षानुमानयोः सिद्धिः प्रमाणांतराभाववादिनः संभाव्यते नान्यथा॥ तदा मतेः प्रमाणत्वं नामांतरधृतोस्तु नः। तद्वदेवाविसंवादाच्छ्रुतस्येति प्रमात्रयम् // 170 // इस प्रकार यदि अविसंवादी होने से प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रमाण मानते हो तो तुम्हारे दर्शन में तर्क, स्मृति, संज्ञा, ज्ञान प्रमाण क्यों नहीं होगा? और अविसंवादीपन की अपेक्षा प्रत्यक्ष और तर्क स्मृति, संज्ञा, ज्ञान में कोई विशेषता नहीं है अन्यथा अनुमान ज्ञान भी प्रमाण नहीं हो सकता // 168 // __ अविसंवादी होने से मन से उत्पन्न हुआ अविशद ज्ञान भी व्याप्ति को जानने में प्रमाण है। इस प्रकार कहने वाला बौद्ध तर्क को प्रमाण क्यों नहीं मानता है? तथा स्मरण और प्रत्यभिज्ञान का किस प्रमाण से खण्डन करता है? क्योंकि वह अविशद होकर सम्वादीपना, तर्क, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान तीनों में कोई विशेषता नहीं है। मन से उत्पन्न होने के कारण वे तर्क आदिक तीन ज्ञान प्रमाण नहीं हैं ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने से अनुमान को भी अप्रमाणपने का प्रसंग आयेगा। यदि सम्वादी होने के कारण अनुमान को प्रमाण मानोगे तो सम्वादी होने से स्मरण आदिक को भी प्रमाण मानना पड़ेगा क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान के समान उन स्मरण आदिक से भी अर्थ की परिच्छित्ति कर प्रवर्त्तने वाला पुरुष अर्थक्रिया में विसंवाद नहीं करता है। लिंग की अपेक्षा नहीं करने वाले तर्क, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, प्रमाणों को यदि मानस प्रत्यक्ष में गर्भित करोगे तब तो प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों की सिद्धि हो सकेगी, अन्यथा नहीं॥१६९॥ यदि तर्क आदि को ज्ञापक हेतु की अपेक्षा नहीं करने से मानस प्रत्यक्ष में गर्भित किया जायेगा तो तीसरे आदि अन्य प्रमाणों को नहीं मानने वाले बौद्ध या वैशेषिकों के यहाँ प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणों की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं। तब तो स्मृति, संज्ञा, चिन्ता आदि या अवग्रह ईहा प्रभृति दूसरे नामों को धारण करने वाले मतिज्ञान का प्रमाणपना व्यवस्थित हो जाने से हमारे और तुम्हारे माने हुए इस ज्ञान में केवल पृथक् नाम निर्देश का भेद है, अर्थ का भेद नहीं है। तथा मतिज्ञान के समान श्रुतज्ञान को भी अविसंवाद होने के कारण प्रमाणपना हो जायेगा। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुतज्ञान ये तीन प्रमाण सिद्ध हो जाते हैं। यदि कोई कहे कि इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष . हैं और इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखने वाले स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिक मानस प्रत्यक्ष हैं, हेतु की अपेक्षा