________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 92 एतेनैव हता देशयोगिप्रत्यक्षतो गतिः। संबंधस्यास्फुटं दृष्टेत्यनुमानं निरर्थकम् // 160 // तस्याविशदरूपत्वे प्रत्यक्षत्वं विरुध्यते। प्रमाणांतरतायां तु द्वे प्रमाणे न तिष्ठतः॥१६१॥ न चाप्रमाणतो ज्ञानाद्युक्तो व्याप्तिविनिश्चयः। प्रत्यक्षादिप्रमेयस्याप्येवं निर्णीतसंगतः॥१२॥ प्रत्यक्षं मानसं येषां संबंधं लिंगलिंगिनोः। व्याप्त्या जानाति तेप्यर्थेतींद्रिये किमु कुर्वते // 16 // यत्राक्षाणि प्रवर्तते मानसं तत्र वर्तते। नोन्यत्राक्षादिवैधुर्यप्रसंगात् सर्वदेहिनाम् // 164 // संबंधोतींद्रियार्थेषु निश्चीयेतानुमानतः। तद्व्याप्तिश्चानुमानेनान्येन यावत्प्रवर्तते // 16 // प्रत्यक्षनिश्चितव्याप्तिरनुमानेऽनवस्थितिः। निवर्त्यते तथान्योन्यसंश्रयश्चेति केचन // 166 // तेषां तन्मानसं ज्ञानं स्पष्टं न प्रतिभासते। अस्पष्टं च कथं नाम प्रत्यक्षमनुमानवत् // 167 // इस उक्त कथन से योगियों के देशप्रत्यक्ष से व्याप्ति को जान लेने के सिद्धान्त का व्याघात कर दिया गया है। क्योंकि उन देशयोगियों को भी साध्य-साधन के सम्बन्ध का व्याप्तिज्ञान चारों ओर से प्रगट प्रत्यक्षरूप दृष्टिगोचर हो रहा है अत: उन प्रत्यक्षज्ञानियों को अनुमान का करना व्यर्थ है। यदि व्याप्ति को जानने वाले उस देशप्रत्यक्ष को अविशदरूप मानोगे तो उसको प्रत्यक्षपना विरुद्ध पड़ेगा। यदि व्याप्ति को जानने वाले प्रमाण को अन्य प्रमाण माना जायेगा तो प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं, यह व्यवस्थित नहीं होता है (तीसरा व्याप्ति ज्ञान भी प्रमाणरूप मानना होगा) // 160-161 // अप्रमाणज्ञान से व्याप्ति का निश्चय करना युक्त नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के प्रमेय तत्त्वों का भी अप्रमाण ज्ञान से निर्णय होना संगत हो जायेगा॥१६२॥ जिन वादियों के यहाँ मन-इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ प्रत्यक्षज्ञान व्याप्ति से साध्य और साधन के सम्बन्ध को जान लेता है, वे भी वादी इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय विषय में ज्ञान कैसे करते हैं? जिस विषय में बहिरंग इन्द्रियाँ प्रवृत्ति करती हैं उसी विषय में अन्तरंग मन प्रवर्तता है, अन्य विषयों में नहीं प्रवर्तता है तब तो सम्पूर्ण प्राणियों के बहिरंग इन्द्रिय और मन आदि से रहितपने का प्रसंग आयेगा। ___ भावार्थ : उन प्राणियों के अतीन्द्रिय, इन्द्रिय, मन आदि को अल्पज्ञ जीव अपनी इन्द्रियों से नहीं जान सकेगा। अतः अनुमान भी नहीं कर सकेगा। अत: जीव की इन्द्रियाँ सिद्ध नहीं होंगी॥१६३-१६४॥ अतीन्द्रिय अर्थों में अनुमान से सम्बन्ध का निश्चय कर लिया जाता है, और उस अनुमान की व्याप्ति का भी निश्चय अन्य अनुमान से कर लिया जाता है। यह धारा तब तक चलती रहेगी जब तक कि किसी प्रत्यक्ष से व्याप्ति का निश्चय कर लिया जाय। अत: अनुमान में अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोष निवृत्त हो जाते हैं। ऐसा कोई कहते हैं। आचार्य कहते हैं कि उनके वह प्रत्यक्ष से व्याप्ति को निश्चय करने वाला अन्तिम मानस ज्ञान स्पष्ट प्रतिभासित नहीं है अत: अस्पष्टज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? जिस प्रकार अविशद अनुमान प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता है॥१६५-१६६-१६७॥