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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 24 मानने वालों का निराकरण ज्ञान को प्रमाण मानने से हो जाता है। सन्निकर्ष (वैशेषिक मान्यता) भी प्रमाण नहीं है, सर्वथा भिन्न ऐसे ज्ञान और आत्मा भी प्रमाण नहीं हैं। प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता का सर्वथा भेद नहीं है, सर्वथा अभेद भी नहीं है। भेदाभेद है। बौद्धों के द्वारा स्वीकृत तदाकारता भी प्रमाण नहीं है। सन्निकर्ष और तदाकारता में अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार होते हैं। स्वसंवेदनाद्वैत भी प्रमाण नहीं हो सकता है; मिथ्याज्ञान, संशय आदि भी प्रमाण नहीं हैं। सम्यक् शब्द का अर्थ प्रशस्त है, अविसंवाद है। जितने अंशों में अविसंवादपना है, उतने अंश में प्रमाणता है। मतिश्रुत एकदेश प्रमाण हैं, अवधिज्ञान-. मन:पर्ययज्ञान को स्वविषय में पूर्ण रूप से प्रमाणता है। केवलज्ञान को सर्वपदार्थों में सर्वांश में पूर्णरूप से प्रमाणता है। प्रसंगवश स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि भी इन्हीं प्रमाणद्वय में समाहित हैं, उन्हें पृथक् मानने की आवश्यकता नहीं है, इस पर विचार कर “प्रमाण की उत्पत्ति स्वत: है या परतः” इसका भी सयुक्तिक विवेचन किया है। . सूत्र 11-12 : में क्रमशः 25 और 39 वार्तिक हैं। परोक्ष व प्रत्यक्ष शब्द की निरुक्ति के साथ मतिश्रुतज्ञान को परोक्ष और शेष तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष सिद्ध करते हुए अन्य वादियों के द्वारा माने हुए सर्व लक्षणों में दोषों का उद्घाटन किया गया है। सूत्र 13 : इस सूत्र की व्याख्या में टीकाकार ने मतिज्ञान का विस्तृत विवेचन किया है जो 394 वार्तिकों में पूर्ण हुआ है। मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध आदि सबका समावेश मतिज्ञान में है। ये सब प्रमाण हैं। स्मृति आदि को प्रमाण नहीं मानने वाले वादियों - बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक आदि के सिद्धान्तों को उद्धृत कर उनमें अनर्थपरम्परा का प्रदर्शन किया है। सूत्र 14 : में मतिज्ञान के निमित्त कारणों का निरूपण है। यहाँ ज्ञान के उत्पादक कारकों का वर्णन है, ज्ञापक हेतुओं का निरूपण नहीं है। धारणा पर्यन्त ज्ञान तो इन्द्रिय अनिन्द्रिय दोनों से उत्पन्न होते हैं, स्मृति आदि में केवल मन ही निमित्त पड़ता है। परम्परा से इन्द्रियाँ भी निमित्त हो जाती हैं। अर्थ और आलोक ज्ञान के कारण नहीं हैं। ज्ञानपना और ज्ञेयपना परस्पर आश्रित हैं किन्तु ज्ञान और ज्ञेय की उत्पत्ति अपनेअपने न्यारे कारणों से अपने नियतकाल में होती है। इस सूत्र की व्याख्या 15 वार्तिकों में सम्पन्न हुई है। ___ सूत्र 15 : मतिज्ञान के भेदों का निरूपण करने के लिए यह सूत्र है। पश्चात् टीकाकार ने अवग्रह आदि का निर्दोष लक्षण कहा है। सभी ज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय करते हैं। अकेले सत् सामान्य का ही निर्बाध ज्ञान नहीं होता है। ये अवग्रह आदि ज्ञान सदा क्रम से ही होते हैं। ये आत्मा की क्रम से उत्पन्न हुई भिन्न-भिन्न पर्यायें हैं किन्तु ये सब पर्यायें एक मतिज्ञानस्वरूप हैं। दर्शनोपयोग से अवग्रहज्ञान भिन्न है। आकांक्षा से कुछ मिला हुआ ईहाज्ञान और संस्कार रूप धारणा ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रमाण रूप है। संशय और विपर्ययज्ञानों का निराकरण करता हुआ स्पष्ट अवायज्ञान है। एकदेश विशद होने से न्यायग्रन्थों में ये ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माने गये हैं। वस्तुत: ये सभी ज्ञान परोक्ष हैं। यह विवेचन 68 वार्त्तिकों में पूर्ण हुआ है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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