________________ प्रस्तुति पूज्य आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी कृत मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद सहित तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकालङ्कार का दूसरा खण्ड मार्च 2009 में पाठकों के स्वाध्यायार्थ प्रस्तुत किया था। अब यह तीसरा खण्ड पाठकों के कर-कमलों में सौंपते हुए हमें हार्दिक आह्लाद है। गीता, कुरान और बाइबिल का जो आदरणीय स्थान अपने-अपने सम्प्रदाय में है, उससे भी महत्त्वपूर्ण स्थान 'तत्त्वार्थसूत्र' का जैन अनुयायियों में है। रचयिता पूज्य उमास्वामी आचार्य ने इसमें 'गागर में सागर' भर दिया है और महर्षि विद्यानन्द स्वामी ने इस परमागम के गूढ़ विषयों को अपनी गम्भीर शैली में सरल बनाकर, संस्कृत गद्य पद्य में तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कार के रूप में अभिव्यक्त कर, तत्त्वजिज्ञासुओं का महदुपकार किया है। सिद्धान्त महोदधि पं. माणिकचन्द्र जी कौंदेय न्यायाचार्य ने इस ग्रन्थ पर अनेक वर्षों तक अथक परिश्रम कर 'तत्त्वार्थचिन्तामणि' नामक भाषा टीका लिखी है जिसका स्वाध्याय कर देशभाषाभिज्ञ स्वाध्याय प्रेमियों ने लाभ उठाया है। - पूज्य माताजी ने अति विस्तार एवं स्वतंत्रविवेचन न कर ‘अलंकार' का मूलानुगामी सरस अनुवाद प्रस्तुत किया है। प्रथम खण्ड में केवल एक सूत्र की व्याख्या का अनुवाद हुआ था। दूसरे खण्ड में दूसरे सूत्र से आठवें सूत्र तक के विषयों का अर्थात् द्वितीय आह्निक पर्यन्त सूत्रों का गम्भीर विवेचन है। टीकाकार महर्षि ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय, तत्त्वों का स्वरूप और भेद, निक्षेपों का कथन, निर्देशादि पदार्थ-विज्ञानों का विस्तार, सत्संख्या तत्त्वज्ञान के साधन आदि पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। प्रसंगवश सम्यग्दर्शन के सम्बंध में बहुत गहराई से विचार किया गया है। प्रस्तुत तृतीय खण्ड में नौवें सूत्र से लेकर 20 वें सूत्र तक यानी तृतीय आह्निक पर्यन्त सूत्रों का विशद विवेचन है। सूत्र 9 : इस सूत्र में ज्ञान के भेदों का उल्लेख है। वार्तिककार ने मति आदि के क्रमपूर्वक कथन की उपपत्ति दर्शाकर इनको यथार्थ ज्ञान सिद्ध किया है। प्रसंगवश प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप, सामान्य विशेष कथंचित् भेदाभेद के रूप में सिद्ध किया है। दोनों ही पदार्थ के स्वरूप हैं एवं अविनाभावरूप से एकत्र रहते हैं। ज्ञान सामान्यपना होने पर भी सभी ज्ञान अपने-अपने स्वरूप से भिन्न हैं। मनीषी टीकाकार ने प्रत्यक्ष आदि सभी ज्ञानों को स्वांश में परोक्ष मानने वाले मीमांसकों के, ज्ञानान्तरों से ज्ञान का प्रत्यक्ष मानने वाले नैयायिकों के, ज्ञान को अचेतन मानने वाले सांख्यों के मत का सतर्क खण्डन किया है। इस सूत्र की व्याख्या 58 वार्तिकों से की गई है। * सूत्र 10 : इस सूत्र की व्याख्या आचार्यश्री ने 185 वार्तिकों द्वारा की है। सर्वप्रथम प्रमाण के स्थूल भेद व स्वरूप का निर्देश है। इससे स्वतः ही सर्वविवादों का शमन हो जाता है। जड़ इन्द्रियों को प्रमाण