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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 79 कंचिदत्यंताभ्यासात् स्वतः प्रमाणत्वस्य निश्चयान्नानवस्थादिदोषः, क्वचिदनभ्यासात् परतस्तस्य व्यवस्थिते व्याप्तिरित्येतदपि स्याद्वादिनामेव परमार्थतः सिद्ध्येत् स्वार्थनिश्चयोपगमात् / न पुनः स्वरूपनिश्चयरहितसकलसंवेदनवादिनामनवस्थाद्यनुषंगस्य तदवस्थत्वात्। तथाहि। वस्तुव्यवस्थानिबंधनस्य स्वरूपनिश्चयरहितस्यास्वसंवेदितस्यैवानुपयोगात् / तत्र निश्चयं जनयत एव प्रमाणत्वमभ्युपगंतव्यम्। तन्निश्चयस्य स्वरूपे स्वयमनिश्चितस्यानुत्पादिताविशेषान्निश्चयांतरजननानुषंगादनवस्था, पूर्वनिश्चयस्योत्तरनिश्चयात्सिद्धौ तस्य पूर्वनिश्चयादन्योन्याश्रयणं / यदि पुनर्निश्चयः स्वरूपे निश्चयमजनयन्नपि सिद्ध्यति निश्चयत्वादेव न प्रत्यक्षमनिश्चयत्वादिति मतं तदार्थज्ञानज्ञानं ज्ञानांतरापरिच्छिन्नमपि सिद्ध्येत् तद्ज्ञानत्वात् न पुनरर्थज्ञानं ___कहीं अधिक परिचित स्थल में अत्यन्त अभ्यास हो जाने से प्रमाणपने का स्वतः निश्चय हो जाता है अत: अनवस्था आदिक दोष नहीं आते हैं। कहीं अपरिचित दशा में अनभ्यास होने से उस प्रमाणपने की अन्य कारणों से ज्ञप्ति व्यवस्था कर दी जाती है अतः अव्याप्ति दोष नहीं है। इस प्रकार कहना भी स्याद्वादियों के यहाँ ही वास्तविकरूप से सिद्ध हो सकता है क्योंकि उन्होंने ज्ञान के द्वारा स्व और अर्थ का निश्चय हो जाना स्वीकार किया है किन्तु स्वरूप का निश्चय नहीं करने वाले सर्वज्ञ ज्ञान को मानने वाले नैयायिकों के सिद्धान्त में अनवस्था आदि दोषों का प्रसंग आता है। जिनके मत में ईश्वर एक ज्ञान से सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है और दूसरे से उस सर्वज्ञातृ ज्ञान को जानता है, उनके यहाँ अनवस्था, अन्योन्याश्रय आदि दोषों का प्रसंग होना वैसे का वैसे ही अवस्थित रहता है। तथाहि सम्पूर्ण वस्तुओं की यथार्थ व्यवस्था करने का कारणभूत ज्ञान माना गया है। यदि ज्ञान को स्व का संवेदन करने वाला नहीं माना जाता है तो स्वरूप का निश्चय करने से रहित उस ज्ञान की वस्तु व्यवस्था करने में कोई उपयोग नहीं है। अत: उस स्वरूप में निश्चय को उत्पन्न करने वाले ज्ञान को ही प्रमाणपनं स्वीकार करना चाहिए और वह प्रमाणपन का निश्चय भी यदि स्वरूप में स्वयं अनिश्चित है, तब तो ऐसे अज्ञात स्वनिश्चय वाले ज्ञान का, उत्पन्न नहीं होने वाले ज्ञान से कोई अन्तर नहीं है (जैसे कि जिसे सुख दुःख का ज्ञान नहीं हुआ वह उत्पन्न हुआ भी उत्पन्न नहीं हुआ सरीखा है) अत: स्व का निश्चय करने के लिए फिर दूसरे निश्चय की उत्पत्ति करने का प्रसंग आयेगा और आगे भी यही क्रम चलेगा अत: अनवस्था होगी। पहिले निश्चय की उत्तरकाल में होने वाले निश्चय से सिद्धि मानने पर और उस उत्तर काल के निश्चय की पूर्वकाल के निश्चय से सिद्धि मानी जाये तो परस्पराश्रय दोष आयेगा। ___यदि पुनः सर्वाङ्गनिश्चय स्वरूप होने के कारण निश्चयात्मकज्ञान स्वरूप में निश्चय नहीं कराता हुआ भी स्वयं निश्चयरूप सिद्ध हो जाता है परन्तु प्रत्यक्ष स्वयं निश्चयरूप सिद्ध नहीं होता है क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान स्वयं निश्चयरूप नहीं है ऐसा मानते हो तो अर्थज्ञान को जानने वाला दूसरा ज्ञान तीसरे अन्य ज्ञान से नहीं जाना गया भी सिद्ध हो जायेगा क्योंकि वह अर्थ को जानने वाले पहिले ज्ञान का ज्ञान है किन्तु यदि पहला
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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