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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 78 प्रेक्षावरणक्षयोपशमविशेषस्य सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामसंभवात् कस्यचिदेव क्वचित्कदाचिच्च प्रेक्षावत्तेतरयोः सिद्धिरन्यत्र प्रक्षीणाशेषावरणादशेषज्ञादिति निश्चितप्रामाण्यात्प्रमाणात्प्रेक्षावतः प्रवृत्तिः कदाचिदन्यदा तस्यैवाप्रेक्षावत: यतः संशयादेरपीति न सर्वदा लोकव्यवहारं प्रति बालपंडितसदृशौ / कथमेवं प्रेक्षावत: प्रामाण्यनिश्चयेऽनवस्थादिदोषपरिहार इति चेत् - तन्नाभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चित: स्वत एव नः। अनभ्यासे तु परत इत्याहुः केचिदंजसा // 126 // तच्च स्याद्वादिनामेव स्वार्थनिश्चयनात् स्थितम् / न तु स्वनिश्चयोन्मुक्तनिःशेषज्ञानवादिनाम् // 127 // हिताहित विचार करने रूप विशिष्ट मतिज्ञानावरण कर्म के विशेष क्षयोपशम का होना सभी विषयों में सब जीवों के सदा सम्भव नहीं है। अत: किसी जीव के किसी-किसी विषय में कभी-कभी बुद्धियुक्तपना और बुद्धिरहितपने की सिद्धि हो जाती है। नष्ट हो गये हैं सम्पूर्ण ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म जिसके ऐसे सर्वज्ञ के अतिरिक्त दूसरे संसारी जीवों में बुद्धि (प्रेक्षा) और बुद्धि रहितपना व्यवस्थित है। इस प्रकार प्रमाणपन का निश्चय रखने वाले प्रमाण से बुद्धिमान पुरुष की प्रवृत्ति होना कभी-कभी बनता है और दूसरे समय उसी जीव की बुद्धि को आवरण करने वाले कर्म का उदय है, तब बुद्धि रहित जीव की भी प्रामाण्यग्रस्त ज्ञान से ही प्रवृत्ति हो सकेगी अथवा कभी अज्ञानियों को संशयादिक से भी प्रवृत्ति हो सकती है सर्वदा नहीं इसलिए सर्वदा लौकिक व्यवहार के प्रति बालक और पण्डित समान नहीं हैं। इस प्रकार बुद्धिमान पुरुष के भी ज्ञान में प्रमाणपन का निश्चय करने में अनवस्था, अन्योन्याश्रय आदि दोषों का परिहार कैसे होगा? इस प्रकार शंका होने पर आचार्य कहते हैं- . जैन दर्शन में अभ्यास दशा में स्वत: प्रमाण का निश्चय हो जाता है। तथा इस कारिका में तत्र पाठ होने से हमारे सिद्धान्त में अभ्यास दशा में स्वतः निश्चय होता है। अनभ्यास दशा में अन्य कारणों से प्रमाणपना जाना जाता है (जैसे अपरिचित स्थल में शीतल वायु कमल गन्ध आदि से जलज्ञान में प्रमाणपन का निर्णय होता है) जैन मतानुसार कोई विद्वान भी इस निर्दोष सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं, किन्तु किन्हीं विद्वानों का इस प्रकार स्वीकार करना स्याद्वादियों के ही सिद्धान्त अनुसार मानने पर घटित होता है। क्योंकि स्याद्वादियों ने स्व और अर्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान में ही प्रमाणपना व्यवस्थित किया है। अपना निश्चय न करन वाले सर्व अस्वसंवेदियों के यह व्यवस्था नहीं बन सकती है॥१२६१२७॥ हाता हा
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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