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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 72 स्वतः प्रमाणेतरैकांतवादिनं प्रत्याह - तन्नानभ्यासकालेपि तथा भावानुषंगतः। न च प्रतीयते तादृक् परतस्तत्त्वनिर्णयात् // 110 // स्वतः प्रामाण्येतरैकांतवादिनामभ्यासावस्थायामिवानभ्यासदशायामपि स्वत एव प्रमाणत्वमितरच्च स्यादन्यथा तदेकांतहानिप्रसंगात् / न चेदृक् प्रतीयतेऽनभ्यासे परत: प्रमाणत्वस्येतरस्य च निर्णयात्। न हि तत्तदा कस्यचित्तथ्यार्थावबोधकत्वं मिथ्यावभासित्वं वा नेतुं शक्यं स्वत एव तस्यार्थान्यथात्वहेतूत्थदोषज्ञानादर्थयाथात्म्यहेतूत्थगुणज्ञानाद्वा अनपवादप्रसंगात्। तथा च नाप्रमाणत्वस्यार्थान्यथाभावाभावज्ञानं बाधकं प्रमाणत्वस्य वार्थान्यथात्वविज्ञानं सिद्ध्येत्। न चानभ्यासे उन दोनों की उत्पत्ति में और स्वकीय कार्य में अन्य सामग्रियों की तथा अपने ग्रहण की कोई अपेक्षा नहीं है। ऐसी दशा में दूसरों से प्रमाणपन या अप्रमाणपन उत्पन्न कराना अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं है। इस प्रकार कोई अन्य कह रहे हैं। स्वतः प्रमाणता और परतः प्रमाणता का खण्डन करके स्वत: और परत: दोनों से होता है, इसकी सिद्धि : नैयायिक तो प्रमाणपने की ज्ञप्ति का होना परतः ही मानते हैं और मीमांसक सभी ज्ञानों में प्रमाणपना स्वत: मानते हैं। प्रथम ही जो प्रमाणपन और अप्रमाणपन को स्वतः मानते हैं, उन एकान्तवादियों के प्रति आचार्य स्पष्ट उत्तर देते हैं प्रमाणपन और अप्रमाणपन की स्वत: ज्ञप्ति हो जाने का एकान्त करना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनभ्यास काल में भी स्वतः ही प्रमाणपन या अप्रमाणपन हो जाने का प्रसंग आएगा किन्तु वैसी स्वतः ज्ञप्ति होना प्रतीत नहीं हो रहा है। अनभ्यास दशा में तो अन्य ज्ञापकों से तत्त्व (यानी उस प्रमाणपन या अप्रमाणपन) का निर्णय होता है। अर्थात्- अपनी परिचित नदी, सरोवर आदि के जल की गहराई के ज्ञान में प्रमाणता स्वत: जानी जाती है किन्तु देशान्तर में जल की गहराई के ज्ञान में परोपदेश आदि अन्य ज्ञापकों से प्रामाण्य जाना जाता है॥११०॥ प्रमाणपन और उससे भिन्न अप्रमाणपन का स्वत: ही ज्ञान होना मानने वाले एकान्तवादियों के यहाँ अभ्यासदशा के समान अनभ्यास दशा में भी स्वत: ही प्रमाणपन और इससे भिन्न अप्रमाणपन हो जाएगा। अन्यथा अनभ्यास दशा में दोनों की परतः ज्ञप्ति मानने पर उनके अपने एकान्त की हानि हो जाने का (अपने पक्ष के परित्याग करने का) प्रसंग आएगा। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है। अनभ्यासदशा में प्रमाणपना और अप्रमाणपना दूसरे कारणों से निर्णीत किया जाता है। क्योंकि उस समय (अनभ्यास दशा में) वह प्रमाणपन किसी के सत्य अर्थ के अवबोधकपन को प्राप्त नहीं किया जा सकता है जिससे कि अर्थ के विपरीतपन या कारणों में उत्पन्न हुए दोषों के ज्ञान से शंका प्राप्त अप्रमाणपन का निराकरण होकर अपवादरहित हो जाने के प्रसंग से उस ज्ञान को स्वत: ही प्रमाणपना ज्ञात हो सकता हो तथा अनभ्यास दशा में वह अप्रमाणपन किसी अर्थ के मिथ्याप्रकाशकपन को भी प्राप्त नहीं कराया जा सकता है, जिससे कि अर्थके यथार्थ आत्मकपन या कारणों में उत्पन्न हुए गुणों के ज्ञान से शंकाप्राप्त प्रमाणपन का निवारण कर अपवादरहित हो जाने से उस ज्ञान को अप्रमाणपना स्वत: ही औत्सर्गिक जाना जा सके।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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