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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 71 यथा शब्दाः स्वतस्तत्त्वप्रत्यायनपरास्तथा। शब्दाभासास्तथा मिथ्यापदार्थप्रतिपादकाः॥१०४॥ दुष्टे वक्तरि शब्दस्य दोषस्तत्संप्रतीयते। गुणो गुणवतीति स्याद्वक्त्रधीनमिदं द्वयम् // 105 // यथा वक्तृगुणैर्दोषः शब्दानां विनिवर्त्यते। तथा गुणोपि तद्दोषैरिति स्पृष्टमभीक्ष्यते // 106 // यथा च वक्तभावेन न स्युर्दोषास्तदाश्रयाः। तद्वदेव गुणा न स्युर्मेघध्वानादिवध्रुवम् // 107 // ततश्च चोदनाबुद्धिर्न प्रमाणं न वा प्रमा। आप्तानाप्तोपदेशोत्थबुद्धस्तत्त्वप्रसिद्धितः॥१०॥ एवं समत्वसंसिद्धौ प्रमाणत्वेतरत्वयोः। स्वत एव द्वयं सिद्धं सर्वज्ञानेष्वितीतरे // 109 // ___ यथा प्रमाणानां स्वत: प्रामाण्यं तथा अप्रमाणानां स्वतोऽप्रामाण्यं सर्वथा विशेषाभावात् तयोरुत्पत्तौ स्वकार्ये च सामण्यंतरस्वग्रहणनिरपेक्षत्वोपपत्तेः प्रकारांतरासंभवादित्यपरे॥ मीमांसकों के दर्शन में जिस प्रकार शब्द स्वत: ही अपने वाच्यार्थ तत्त्वों के समझाने में तत्पर माने गये हैं, उसी प्रकार शब्दाभास भी मिथ्यापदार्थों के स्वत: ही प्रतिपादक माने जा सकते हैं, क्योंकि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् आगम में प्रमाणपन के समान कुशास्त्रों में अप्रमाणपन भी स्वतः उत्पन्न हो सकता है। दोषयुक्त वक्ता के होने पर जैसे शब्द के दोष प्रतीत होते हैं, वैसे ही गुणवान वक्ता के होने पर शब्द के गुण भी स्वतंत्र दिखते हैं क्योंकि गुण-दोष दोनों ही वक्ता के आधीन हैं अत: दोनों स्वतंत्र हैं तथा जिस प्रकार समीचीन सत्यवक्ता पुरुष के गुणों के द्वारा शब्दों के दोष निवृत्त हो जाते हैं और अप्रामाण्य के कारण दोषों के टल जाने से आगमज्ञान में स्वतः प्रामाण्य आ जाता है, उसी प्रकार झूठ कहने वाले वक्ता के दोषों के द्वारा शब्दों के गुण भी निवृत्त हो जाते हैं ऐसा स्पष्ट देखने में आता है। अर्थात्, प्रामाण्य के कारणभूत गुणों के न होने से वाच्यार्थ ज्ञान में स्वतः अप्रमाणपना भी आ जाता है फिर प्रमाणपन की ही .स्वतः उत्पत्ति का आग्रह क्यों किया जा रहा है ? जैसे वक्ता के अभाव में उसके आधार पर होने वाले दोष नहीं हो सकते हैं (अतः अप्रमाणपन के कारणों के टल जाने से स्वत: ही वेद में प्रमाणपना आ जाता है)। उसी प्रकार हम भी कह सकते हैं कि मेघशब्द, वात्या (आँधी) के शब्द आदि में वक्ता के न होने के कारण ही गुण भी नहीं हैं अतः निश्चय से उनमें अप्रमाणपना स्वत: उत्पन्न हो जाएगा॥१०४-१०५-१०६-१०७॥ तथा विधिलिङन्त वेद वाक्यों से उत्पन्न हुई कर्मकाण्ड की प्रेरिका बुद्धि प्रमाण भी नहीं है और 'अप्रमाण भी नहीं है, क्योंकि आप्त और अनाप्त के उपदेशों से उत्पन्न हुई बुद्धि को उस प्रमाणपन और 'अप्रमाणपन की व्यवस्था सिद्ध है। इस प्रकार मीमांसकों के यहाँ प्रमाणपन और अप्रमाणपन दोनों की समान रूप से सिद्धि हो जाने पर सम्पूर्ण ज्ञानों में प्रमाणपन और अप्रमाणपन स्वत: ही सिद्ध हो जाता है॥१०८ '109 // है जिस प्रकार प्रमाणज्ञानों को स्वतः प्रमाणपना इष्ट है, उसी प्रकार अप्रमाणभूत कुज्ञानों को स्वतः अप्रमाणपना हो जाने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि सभी प्रकारों से कोई अन्तर नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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