________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 367 _ किं निमित्तं श्रुतज्ञानं नित्यशब्दनिमित्तमन्यनिमित्तं चेति शंकामपनुदति मतिपूर्वकमिति वचनात्। किं भेदं तत्? षड्भेदं द्विभेदमित्यभेदं वेति संशयं सहस्रप्रभेदं द्वादशप्रभेदमनेकभेदं वेति चारेकामपाकरोति व्यनेकद्वादशभेदमिति वचनात्। तत्र किमिदं श्रुतमित्याह;श्रुतेऽनेकार्थतासिद्धे ज्ञानमित्यनुवर्तनात् / श्रवणं हि श्रुतज्ञानं न पुनः शब्दमात्रकम् // 2 // किस पदार्थ को निमित्तकारण मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है? नित्य अपौरुषेय शब्द के निमित्त से या किसी अन्य निमित्त से या किसी पुण्य विशेष या भावना ज्ञान से श्रुतज्ञान होता है? इस प्रकार की शंका का “मतिपूर्वं" - इस वचन से निराकरण हो जाता है। अर्थात् मतिज्ञानस्वरूप निमित्त से श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। नित्य शब्द आदि से नैमित्तिक श्रुतज्ञान नहीं होता है। सूत्र के उत्तरार्द्ध का फल यह है कि उस श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं? इस प्रश्न के उत्तर में कतिपय विद्वान् कहते हैं कि श्रुतज्ञान के छह भेद हैं। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, धनुर्वेद, आयुर्वेद हैं। या शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, छन्द ज्योतिष ये वेद के छह अंग हैं। तीन वेद और तीन उपवेद होकर भी छह भेद हो जाते हैं। तथा श्रुतज्ञान के ब्राह्मण-भाग और मंत्र भाग ये दो भेद हैं। अथवा अद्वैतवादियों के अनुसार वेद का कोई भेद नहीं है। एक ही प्रकार का ब्रह्मप्रतिपादक वेद है। औपाधिक भेद मूलपदार्थ को भिन्न प्रकार का नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार के संशय का “व्यनेकद्वादशभेदम्' के द्वि इस वचन से निवारण हो जाता है। . अर्थात् वह श्रुतज्ञान मूल में दो भेद वाला है। उसके छह आदि भेद नहीं हैं। कोई-कोई मीमांसक वेदों की सहस्र शाखायें मानकर वेद के उत्तर प्रभेद हजार मानते हैं। “सहस्रशाखो वेद:"। अन्य कोई व्याकरण, न्याय, साहित्य, सिद्धान्त, इतिहास, ज्योतिष, मंत्र आदि प्रभेदों से आगम के बारह उत्तर भेद मानते हैं। किन्हीं विद्वानों ने अन्य भी अनेक उत्तर भेद स्वीकार किए हैं। कोई ऐसे भी हैं, जो उत्तर भेदों को मानते ही नहीं हैं। इस प्रकार की शंका का निरास तो “व्यनेकद्वादशभेदम्' - इस सूत्रार्द्ध के "अनेकद्वादशभेदम्” वचन से हो जाता है। अर्थात् - श्रुतज्ञान के दो भेदों के उत्तरभेद अनेक और बारह हैं, न्यून अधिक नहीं हैं। इस सूत्र में स्थित यह श्रुत क्या पदार्थ है? इस प्रकार की जिज्ञासा पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते motho श्रुत शब्द के अनेक अर्थ हैं। शास्त्र, निर्णीत अर्थ शब्द आदि कतिपय अर्थ सहित सिद्ध होते हुए भी “मतिश्रुतावधिमन: पर्ययकेवलानि ज्ञानम्” - इस सूत्र से ज्ञानम् शब्द की अनुवृत्ति चले आने के कारण भावरूप श्रवण द्वारा निर्वचन किया गया श्रुत का अर्थ श्रुतज्ञान है। किन्तु फिर कानों से सुना गया केवल शब्द ही श्रुत नहीं है। अर्थात् - "श्रवणं श्रुतं'- इस प्रकार भाव में क्त प्रत्यय कर व्युत्पन्न श्रुतपद ज्ञान की अनुवृत्ति होने से रूढ़ि के अधीन होता हुआ किसी विशेषज्ञान को कहने वाला है॥२॥