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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 345 रश्मिवल्लोचनं सर्वं तैजसत्वात् प्रदीपवत् / इति सिद्धं न नेत्रस्य ज्योतिष्कत्वं प्रसाधयेत् // 36 // तैजसं नयनं सत्सु सन्निकृष्टरसादिषु। रूपस्य व्यंजकत्वाच्चेत्प्रदीपादिवदीर्यते // 37 // हेतोर्दिने निशानाथमयूखैर्व्यभिचारिता। तैजसं निहितं चंद्रकांतरत्नक्षितौ भवाः // 38 // तेजोनुसूत्रिता ज्ञेया गा मूलोष्णवती प्रभा। नान्या मरकतादीनां पार्थिवत्वप्रसिद्धितः // 39 // चक्षुषस्तैजसत्वे साध्ये रूपस्यैव व्यंजकत्वादित्यस्य हेतोश्चंद्राद्युद्योतेन मूलोष्णत्वरहितेन पार्थिवत्वेन व्यभिचारादगमकत्वात्तत्तैजसत्वस्यासिद्धेर्न ततो रश्मिवच्चक्षुषः सिद्ध्येत्॥ वैशेषिक अनुमान प्रमाण द्वारा नेत्रों की किरणों को सिद्ध करते हैं कि सम्पूर्ण चक्षुएँ किरणों से सहित हैं, प्रदीप कलिका के समान तेजोद्रव्य द्वारा निर्मित होने से। तैजसत्व हेतु नेत्रों के दीप्त किरणसहितत्व को सिद्ध करता है। इस अनुमान में दिया गया तैजसत्व हेतु नेत्र के भास्वरस्वरूपवाले तेजोद्रव्य से निर्मित तैजस को सिद्ध नहीं करता है, यदि अन्य पदार्थों के रूप, रस, गंध आदि के सन्निकृष्ट होने पर भी वह रूप का ही व्यंजक हो जाने से, प्रदीप, सूर्य आदि के समान नयन तैजस है, तो इस प्रकार वैशेषिक के निरूपण करने पर जैनाचार्य कहते हैं॥३६-३७॥ : चक्षु में तैजसत्व को साधने के लिए दिये गए रूप का ही प्रकाशकपना हेतु का दिन में निशानाथ (चन्द्रमा) की किरणों के द्वारा व्यभिचारी होता है अर्थात् प्रभा को दृष्टान्त मान लेने पर हेतु में परकीय विशेषण नहीं है। चन्द्रकान्तमणि, पन्नारत्न आदि से भी व्यभिचार होता है। यदि चन्द्रकान्त रत्न की भूमि आदि में तैजसद्रव्य को मानकर उनमें पायी जाने वाली किरणों में तेजोद्रव्य का अन्वित सूत्र बँधा हुआ मान लेना भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि तेजोद्रव्य पदार्थों की प्रभा तो मूल में उष्णता से सहित होती है। मूल में उष्ण और प्रभा में भी उष्ण जो पदार्थ है, वह अग्निस्वरूप तैजस पदार्थ है, किन्तु मूल में अनुष्ण और प्रभा में उष्ण पदार्थ सूर्य तो आतपयुक्त कहा जाता है। मूल और प्रभा दोनों में उष्णतारहित पदार्थ चन्द्रमा, पन्ना, खद्योत, उद्योतवान् कहे जाते हैं, जैनसिद्धान्तानुसार सूर्य विमान का शरीर सर्वथा उष्ण नहीं है, किन्तु उसकी प्रभा अति उष्ण है अतः सूर्यकिरणों से भी व्यभिचार हो सकता है। अत: मूल कारण में उष्णतावाली प्रभा से सहित किरणें ही तैजस कही जा सकती हैं अन्य पन्ना, मणि, वैडूर्यरत्न, नीलमणि आदिकों को तो पृथ्वी का विकारपना प्रसिद्ध है। यानी जो मूल में अनुष्ण है और जिसकी प्रभा भी अनुष्ण है, वह तैजस नहीं हैं॥३८-३९॥ चक्षु का तैजसपना साध्य करने पर रूप आदि के सन्निहित होने से, रूप का ही व्यंजकपना होने से, यों इस हेतु का चन्द्रमा, मरकत मणि आदि के उद्योत करके व्यभिचार आता है, जो कि मूल में और प्रभा में उष्णता से रहित होता हुआ पृथ्वी का विकार माना गया है। चक्षुस्सन्निकर्ष में व्यभिचार वारण करने के लिए द्रव्यत्व और ज्ञान के कारण को ही ज्ञान का विषय मानने वाले वादी के यहाँ चाक्षुषप्रत्यक्ष के विषय हो रहे रूप, रूपवान अर्थ, रूपत्व, रूपाभाव इन करके हुए व्यभिचार के निवारणार्थ करणत्व विशेषण
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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