________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 308 कथं च मेचकज्ञानं प्रत्यर्थवशवर्तिनि। ज्ञाने सर्वत्र युज्येत परेषज्ञां नगरादिषु // 23 // - न हि नगरं नाम किं चिदेकमस्ति ग्रामादि वा यतस्तद्वेदनं प्रत्यर्थवशवर्ति स्यात् / प्रासादादीनामल्पसंयुक्तसंयोगलक्षणात् प्रत्यासत्तिनगरादीति चेत् न, प्रासादादीनां स्वयं संयोगत्वेन संयोगांतरानाश्रयत्वात्। काष्ठेष्टकादीनां तल्लक्षणा प्रत्यासत्तिर्नगरादि भवत्वितिचेन्न, तस्याप्यनेकगत्वात्। न हि यथैकस्य काष्ठादेरेकेन केनचिदिष्टकादिना संयोगः स एवान्येनापि सर्वत्र संयोगस्यैकत्वव्यापित्वादिप्रसंगात् समवायवत्। चित्रैकरूपवच्चित्रैकसंयोगो नगराधेकमिति चेन्न, साध्यसमत्वादुदाहरणस्य। न ह्येकं चित्रं रूपं . प्रसिद्धमुभयोरस्ति॥ अर्थात्-अनेक नील, पीत आदि आकारों को जानने वाला चित्रज्ञान तो एक होकर अनेकों का प्रतिभास कर रहा है। तथा वैशेषिकों के मतानुसार नगर, ग्राम आदि में एक ज्ञान नहीं हो सकेगा, क्योंकि अनेक घरों पशुओं आदि का सामुदायिक एक ज्ञान होने पर ही एक नगर का ज्ञान हो सकता है॥२३॥ .. नगर अथवा ग्राम आदिक कोई एक वस्तु नहीं है जिससे कि उनमें, नगर सेना आदि का एक ज्ञान होता हुआ प्रत्येक अर्थ के वशवर्ती हो सके। अत: अनेक को भी जानने वाला एक ज्ञान मानना पड़ेगा। इस पर यदि वैशेषिक इस प्रकार कहें कि नगर तो एक ही पदार्थ है। अनेक प्रासादों आदि का अति अल्प संयुक्त संयोगस्वरूप लक्षण प्रत्यासत्ति संबंध हो जाना ही एक नगर है। अर्थात् एक घर का दूसरे घर से अति निकट संयोग और उस संयुक्त घर का तीसरे से संयोग होना है। इसी प्रकार बाजार, मोहल्ले आदि अनेक का अति निकट एक संयोग हो जाना ही एक नगर पदार्थ है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि उन प्रासादों आदि को भी संयोगपने से वैशेषिकों ने स्वीकार किया है। अर्थात्-ईंट चूना, लकड़ी आदि के संयोग को ही प्रासाद या घर माना है। घट-पट के समान एक द्रव्य घर नहीं है अत: संयोगस्वरूप प्रासादों का पुनः संयोगस्वरूप नगर नहीं बन सकता है, क्योंकि संयोगगुण में पुन: दूसरा संयोगगुण नहीं रहता। काठ, ईंट आदि की तत्स्वरूप प्रत्यासत्ति ही नगर आदि हैं ऐसा नहीं कहना क्योंकि अनेक काठ, ईंटों का वह संयोग भी तो अनेक में स्थित है। अत: वे संयोग अनेक हैं, एक नहीं। जिस प्रकार एक काठ, ईंट आदि का किसी दूसरे एक ईंट, चूना, आदि के साथ संयोग है, वही संयोग पृथक् तीसरे ईंट आदि के साथ नहीं है। इस प्रकार सब संयोग के मानने पर तो संयोग गुण को समवाय के समान एकपन, व्यापीपन, नित्यपन आदि का प्रसंग आयेगा। नील अवयव, पीत अवयव आदि से बनाये गए अवयवी में रहने वाला कर्बुर या चित्र-विचित्र एकरूप नामक गुण के समान एक चित्र संयोग ही नगर, ग्राम आदि एक पदार्थ है। ऐसा नहीं कहना, क्योंकि चित्रवर्ण नामका उदाहरण ही साध्य के समान असिद्ध है, असिद्ध उदाहरण से साध्य नहीं सधता है। लौकिक और परीक्षकों के यहाँ या हमारे-तुम्हारे यहाँ या दोनों के यहाँ एक चित्र रूप कोई पदार्थ प्रसिद्ध नहीं है अर्थात् पाँच वर्षों से अतिरिक्त कोई छठा चित्रवर्ण नहीं है।