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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 307 बहुत्वेन विशिष्टेषु संख्येयेषु प्रवर्तितः। बहुज्ञानस्य तद्भेदैकांताभावाच्च युक्तितः // 22 // न हि बहुत्वमिदमिति ज्ञानं बहुष्वर्थेषु कस्यचिच्चकास्ति बहवोमी भावा इत्येकस्य वेदनस्यानुभवात् / संख्येयेभ्यो भिन्नामेव बहुत्वसंख्यां संचिन्वन् बहवो इति चेत् तेषां सत्समवायित्वादित्ययुक्ता प्रतिपत्तिः। कुटाद्यवयविप्रतिपत्तौ साक्षात्तदारंभकपरमाणुप्रतिपत्तिप्रसंगात् / अन्यत्र प्रतिपत्तौ नान्यत्र प्रतिपत्तिरिति चेत्, तर्हि बहुत्वसंवित्तौ बह्वर्थसंवित्तिरपि माभूत्। येषां तु बहुत्वसंख्याविशिष्टेष्वर्थेषु ज्ञानं प्रवर्तमानं बहवोर्था इति प्रतीति: तेषां न दोषोस्ति, बहुत्वसंख्यायाः संख्येयेभ्यः सर्वथा भेदानभ्युपगमात्। गुणगुणिनोः कथंचिदभेदस्य युक्त्या व्यवस्थापनात्। ततो न प्रत्यर्थवशवर्ति विज्ञानं बहुबहुविधे संवेदनव्यवहाराभावप्रसंगात्॥ कथंचित् अभिन्न अनेक बहुत पदार्थों का ज्ञान हो जाना युक्तिसंगत है॥२१-२२॥ बहुत अर्थों को नहीं जानकर उन बहुत से अर्थों में यह एक बहुत संख्या है-इस प्रकार का ज्ञान किसी को भी प्रतिभासित नहीं होता है, किन्तु बहुत पदार्थों को युगपत् जानने वाले अनेक अर्थों का एक ज्ञान होता हुआ अनुभव में आता है। “संख्या करने योग्य अर्थों से सर्वथा भिन्न बहुत्वनामक संख्या गुण को इकट्ठा जानने वाला" बहुत अर्थ है- ऐसा अनुभव कर लेता है, क्योंकि वे बहुत से अर्थ उस संख्या के समवायसम्बन्ध वाले हैं। वस्तुत: एक ज्ञान से बहुत संख्या का ज्ञान होता है। इस प्रकार प्रतिपत्ति करना अयुक्त है, क्योंकि समवेत पदार्थ के जानने से यदि समवायी पदार्थों की प्रतिपत्ति होने लगे तब तो घट, पट आदि अवयवियों की ज्ञप्ति हो जाने पर उन घट आदि के अव्यवहितरूप से समवायी आश्रय रहने वाले परमाणुओं की ज्ञप्ति हो जाने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् जैसे बहुत संख्या का समवाय सम्बन्ध बहुत से अर्थों में है, उसी प्रकार अवयवी घट आदि का समवाय सम्बन्ध उसको प्रारम्भ करने वाले अनेक परमाणुओं में है। अन्य पदार्थ में प्रतिपत्ति हो जाने से उससे पृथक् दूसरे पदार्थों में तो उसी ज्ञान से प्रतिपत्ति नहीं हो सकती . है। घट को जानने वाला ज्ञान घट से सर्वथा भिन्न कारण परमाणुओं को नहीं जान सकता है। ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि प्रकृत में बहुत संख्या की ज्ञप्ति हो जाने पर भी उस बहुत्व संख्या से भिन्न बहुत अर्थों की संवित्ति भी नहीं होगी। जिन स्याद्वादियों के यहाँ बहुत संख्याओं से विशिष्ट अनेक अर्थों में प्रवृत्तमान एक ज्ञान ही “ये बहुत अर्थ हैं"- इस प्रकार प्रतीतिरूप हो जाता है, उन जैनों के यहाँ तो कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि संख्या करने योग्य अनेक पदार्थों से बहुत्व संख्या का सर्वथा भेद नहीं माना गया है। गुण और गुणी के कथंचित् अभेद को हम युक्तियों से व्यवस्थापित कर चुके हैं अतः प्रत्येक अर्थ के अधीन होकर रहने वाला विज्ञान नहीं है। अन्यथा (एक ज्ञान की एक ही अर्थ को विषय करने की अधीनता से वृत्ति मानी जाएगी तो) बहुत और बहुत प्रकार के अर्थों में एक सम्वेदन होने के व्यवहार के अभाव का प्रसंग आयेगा। परन्तु एकज्ञान से अनेक अर्थों को युगपत् जान रहे प्रतीत होते हैं। ज्ञानों को प्रत्येक अर्थ के अधीन होकर वर्तने वाला मानने पर तो मेचकज्ञान कैसे हो सकेगा?
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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