SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 300 . बहुबहुविधक्षिप्रानिसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् // 16 // किमर्थमिदं सूत्रं ब्रवीति। यद्यवग्रहादिविषयविशेषनिर्ज्ञानार्थं तदा न वक्तव्यमुत्तरत्र सर्वज्ञानानां विषयप्ररूपणात् प्रयोजनांतराभावादिति मन्यमानं प्रत्याह;केषां पुनरिमेवग्रहादयः कर्मणामिति / प्राह संप्रतिपत्त्यर्थं बढित्यादिप्रभेदतः॥१॥ नावग्रहादीनां विषयविशेषनिर्ज्ञानार्थमिदमुच्यते प्राधान्येन। किं तर्हि। बह्वादिकर्मद्वारेण तेषां प्रभेदनिश्चयार्थं कर्मणि षष्ठीविधानात्। कथं तर्हि बह्वादीनां कर्मणामवग्रहादीनां च क्रियाविशेषाणां परस्परमभिसंबंध इत्याह; बहुत अधिक वस्तु या बहुत संख्यावाली वस्तु और बहुत प्रकार की वस्तुएँ तथा शीघ्र अथवा सम्पूर्ण नहीं निकले हुए, नहीं कहे गये और निश्चल तथा इनसे इतर अर्थात् थोड़े या एक एवं एक प्रकार या अल्प प्रकार तथा चिरकाल, पूरा निकला हुआ, वचन से कहा गया, अस्थिर इन पदार्थों के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति आदि ज्ञान होते हैं। पूर्व सूत्र में कहे गये ज्ञानों के ये बहु आदि बारह पदार्थ विषय हैं॥१६॥ ___कोई कहता है कि इस बहु आदि सूत्र को उमास्वामी महाराज किस लिए कह रहे हैं? यदि अवग्रह आदि ज्ञानों के विशेष विषयों का निर्णयज्ञान कराने के लिए यह सूत्र कहा जाता है, तब तो यह सूत्र नहीं कहना चाहिए, क्योंकि कुछ आगे चलकर उत्तरवर्ती प्रकरण में सम्पूर्ण ज्ञानों के विषय का सूत्रकार द्वारा स्पष्ट कथन किया ही जाएगा। 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो' - यहाँ से लेकर चार सूत्रों में ज्ञान के विषयों का निरूपण है। इस विषयनिरूपण के अतिरिक्त अन्य कोई प्रयोजन दीखता नहीं है। इस प्रकार मानने वाले विद्वान् के प्रति श्री विद्यानन्द आचाय कहते हैं ये अवग्रह आदि क्रियाविशेष फिर किन कार्यों के होते हैं ? इसको भेद-प्रभेद से समझाने के लिए ग्रन्थकार उमास्वामी महाराज ने बहु, बहुविध इत्यादि सूत्र कहा है॥१॥ अवग्रह आदि ज्ञानों के विशेष विषयों का निर्णय कराने के लिए यह सूत्र प्रधानता से नहीं कहा गया है, तो किस लिए कहा गया है? ऐसी जिज्ञासा का उत्तर है कि बहु, बहुविध आदिक ज्ञेय कर्मों के द्वारा उन अवग्रह आदि के प्रभेदों का निश्चय कराने के लिये यह सूत्र कहा गया है। कर्तृकर्मणोः कृति षष्ठी'- इस सूत्र द्वारा यहाँ कर्म में षष्ठी विभक्ति का विधान किया है। अर्थात् अवग्रह्णाति, ईहते, अवैति, धारयतिइस प्रकार गण के रूपों का प्रयोग होने पर तो कर्म में द्वितीया हो जाती है। किन्तु, कृदन्त प्रत्ययान्त अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा इस प्रकार क्रियाओं का प्रयोग होने पर तो कर्म में षष्ठी विभक्ति हो जाती है। अतः अवग्रह आदि ज्ञानों के व्याप्य भेदों को समझाने के लिए यह सूत्र कहा गया है। ___ तो फिर बहु, बहुविध आदि विषयभूत कर्मों का और अवग्रह आदि विषयी क्रियाविशेषों का परस्पर में सब ओर से कौन सा सम्बन्ध है? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं बहु आदि कर्मों का और अवग्रह आदि क्रियाओं का परस्पर में प्रत्येक के साथ संशयरहित होकर
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy