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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 299 अवायस्य प्रमाणत्वं धारणायाश्च नेष्यते। समीहयेहिते स्वार्थे गृहीतग्रहणादिति // 67 // तदानुमाप्रमाणत्वं व्याप्रियात्तत एव ते। इत्युक्तं स्मरणादीनां प्रामाण्यप्रतिपादने // 6 // सत्यपि गृहीतग्राहित्वेवायधारणयोः स्वस्मिन्नर्थे च प्रमाणत्वं युक्तमुपयोगविशेषात्। न हि यथेहागृह्णाति विशेष कदाचित्संशयादिहेतुत्वेन तथा चावाय: तस्य दृढतरत्वेन सर्वदा संशयाद्यहेतुत्वेन व्यापारात्। नापि यथावायः कदाचिद्विस्मरणहेतुत्वेनापि तत्र व्याप्रियते तथा धारणा तस्याः कालांतराविस्मरणहेतुत्वेनोपयोगादीहावायाभ्यां दृढतमत्वात्। प्रपंचतो निश्चितं चैतत्स्मरणादिप्रमाणत्वप्ररूपणायामिति नेह प्रतन्यते।। अप्रमाण हो जाएगा, क्योंकि वह अनुमान भी व्याप्तिज्ञान से गृहीत विषय में व्यापार करता है। इस बात को हम स्मरण तर्क आदि ज्ञानों को प्रमाणपना प्रतिपादन करते समय कह चुके हैं॥६७-६८॥ - विशेष उपयोग से उत्पन्न होने से गृहीत का ग्राहकपना होते हुए भी अवाय और धारणा ज्ञानों का स्व और अर्थ विषय को जानने में प्रमाणपना मानना युक्त है, क्योंकि, जिस प्रकार ईहा ज्ञान अर्थ के विशेष को कभी-कभी संशय, विपर्यय आदि के कारण को जानता है, उसी प्रकार अवाय नहीं जानता है, क्योंकि वह अवायज्ञान अपने विषय को जानने में अतिदृढ़ है। इस कारण सभी कालों में संशय आदि का हेतु नहीं हो करके अवाय अपने विषय को जानने में व्यापार कर रहा है। अर्थात्-ईहा ज्ञान होकर के भी उस विषय में संशय, विपर्यय उत्पन्न हो सकते हैं। किन्तु अवाय हो जाने पर उस विषय में कदाचित् भी संशय, विपर्यय नहीं हो पाते हैं। तथा धारणा में भी जिस प्रकार अवायज्ञान कभी-कभी विस्मरण का कारण होकर भी उस अर्थ को जानने में व्यापार कर रहा है, उसी प्रकार धारणाज्ञान व्यापार नहीं कर रहा है, क्योंकि वह धारणाज्ञान तो कालान्तर में विस्मरण नहीं होने देने का हेतु है। इसलिए अवायज्ञान से धारणाज्ञान विशेष उपयोगी ज्ञान है, अत: यह धारणाज्ञान अवग्रह, ईहाज्ञानों से अत्यधिक दृढ़ है। इस विषय को हम स्मरण आदि ज्ञानों के प्रमाणपन का प्रकृष्ट कथन करने के अवसर में विस्तार से निश्चित करा चुके हैं अत:यहाँ अधिक विस्तार नहीं किया गया है। मतिज्ञान के विशेष प्रभेदों का निरूपण करने के लिए श्री उमास्वामी आचार्य कहते हैं
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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