________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 23 कश्चिदाह, मतिश्रुतयोरेकत्वं साहचर्यादेकत्रावस्थानादविशेषाच्चेति तद्विरुद्धं साधनं तावदाह - न मतिश्रुतयोरैक्यं साहचर्यात्सहस्थितेः। विशेषाभावतो नापि ततो नानात्वसिद्धितः॥२६॥ साहचर्यादिसाधनं कथंचिन्नानात्वेन व्याप्तं सर्वथैकत्वे तदनुपपत्तेरिति तदेव साधयेन्मतिश्रुतयोर्न पुनः सर्वथैकत्वं तयोः कथंचिदेकत्वस्य साध्यत्वे सिद्धसाध्यतानेनैवोक्ता // साहचर्यमसिद्धं च सर्वदा तत्सहस्थितिः। नैतयोरविशेषश्च पर्यायार्थनयार्पणात् // 27 // सामान्यार्पणायां हि मतिश्रुतयोः साहचर्यादयो न विशेषार्पणायां पौर्वापर्यादिसिद्धेः / कार्यकारणभावादेकत्वमनयोरेवं स्यादितिचेत् न, ततोपि कथंचिद्भेदसिद्धेस्तदाह - कार्यकारणभावात्स्यात्तयोरेकत्वमित्यपि। विरुद्धं साधनं तस्य कथंचिद्भेदसाधनात् // 28 // कोई कहता है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों साथ-साथ रहते हैं और एक आत्मा में दोनों अवस्थान करते हैं तथा दोनों में कोई विशेषता भी नहीं है अत: मति और श्रुत ज्ञान में एकपना है; नानापना सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार कहने पर सबसे पहले आचार्य इसे स्पष्ट करते हैं कि मति और श्रुत के अभेद को साधने वाला हेतु विरुद्ध है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में कथञ्चित् भेद है- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के साहचर्य से अथवा एक आत्मा में साथ-साथ स्थिति होने से एकपना भी नहीं है, तथा परस्पर में विशेषता न होने से दोनों में सिद्ध किया गया एकपना ठीक नहीं है, क्योंकि इन हेतुओं से तो अभेदपना सिद्ध नहीं होता प्रत्युत् नानापन की सिद्धि होती है॥२६॥ ... मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का ऐक्य सिद्ध करने के लिए दिये गये साहचर्य आदि हेतु तो विरुद्ध हैं। कथंचित् नानापन के साथ व्याप्त होने से उनका सर्वथा एकपना मानने पर वे सहचरपना आदि हेतु नहीं बन सकते हैं अत: वे हेतु उस कथंचित् नानापन को ही सिद्ध करते हैं, सर्वथा एकपने को नहीं, तथा उन दोनों * ज्ञानों में कथंचित् एकपने को साध्य करने पर सिद्धसाध्यता है। इस कथन से कथंचित् अनेकत्व के साथ हेतुओं की व्याप्ति का समर्थन हो जाता है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से विचारा जाय तो इन दोनों में सहचरता और सहस्थिति असिद्ध है (क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानरूप पर्यायें आत्मा में क्रम से ही होती हैं। एक समय में छद्मस्थ जीवों के दो उपयोग नहीं होते हैं) तथा मति और श्रुत में पर्यायदृष्टि से अविशेषपना भी नहीं है किन्तु अन्तर (विशेषपना) है। अर्थात् पर्याय दृष्टि से दोनों में अन्तर है॥२६॥ - सामान्य की अपेक्षा मतिश्रुत ज्ञानों में सहचरपना आदि धर्म ठहर जाते हैं, किन्तु विशेष परिणामों की विवक्षा करने पर इन दोनों में पूर्व पीछे, आदि की सिद्धि है। मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, इस प्रकार पूर्वापर पदार्थों में कार्यकारण भाव होने से इनमें एकपना है, ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि कार्यकारण भाव से भी उनमें कथंचित् भेद ही सिद्ध होता है। इसी को आचार्य स्पष्ट करते हैं - . कार्यकारण भाव होने से श्रुतज्ञान और मतिज्ञान में एकत्व है, यह हेतु भी विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि वह कार्यकारण भाव तो कथंचित् भेद को सिद्ध करता है॥२८॥