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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 264 सदुपलंभकप्रमाणाप्रवृत्तेरभावप्रमाणस्यावश्याश्रयणीयत्वात्। सादृश्यविशिष्टाद्वस्तुनो वस्तुविशिष्टाद्वा सादृशात् परोक्षार्थप्रतिपत्तिरभ्युपगमनीयत्वाच्चेति केचित्। संभवः प्रमाणांतरमाढकं दृष्ट्वा संभवत्य ढकमिति प्रतिपत्तेरन्यथा विरोधात् / प्रातिभं च प्रमाणांतरमत्यंताभ्यासादन्यजनावेद्यस्य रत्नादिप्रभावस्य झटिति प्रतिपत्तेर्दर्शनादित्यन्ये तान् प्रतीदमुच्यते;सिद्धः साध्याविनाभावो ह्यर्थापत्तेः प्रभावकः। संभवादेश्च यो हेतुः सोपि लिंगान्न भिद्यते // 392 // दृष्टांतनिरपेक्षत्वं लिंगस्यापि निवेदितम् / तन्न मानांतरं लिंगादर्थापत्त्यादिवेदनम् // 393 // इस उक्त कथन से अभावप्रमाण को भी स्मृति आदिकों से पृथक् प्रमाणपना सिद्ध कर दिया गया है तथा सादृश्य को विषय करने वाला उपमान भी पृथक् प्रमाण है। वस्तु के सद्भावों को ही जानने वाले प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति इन पाँच प्रमाणों की वस्त के असद्भाव को जानने में प्रवत्ति नहीं होती है अत: अभाव को जानने के लिए अभाव प्रमाण का आश्रय करना भी अत्यावश्यक है। ___ तथा उपमान भी पृथक् प्रमाण अवश्य है क्योंकि सादृश्यविशिष्ट वस्तु से अथवा वस्तुविशिष्ट सादृश्य से परोक्ष अर्थ की प्रतिपत्ति करना सभी वादियों को स्वीकार करने योग्य है, इस प्रकार कोई मीमांसक कहते हैं। कोई कहते हैं कि सम्भव भी पृथक् प्रमाण है। आढ़क' को देखकर उसमें अर्द्ध आढ़क सम्भव है उसका यह अर्ध आढ़क है। इस प्रकार की प्रतिपत्तियाँ होने का अन्यथा (संभव को प्रमाण माने बिना) विरोध है। एक पृथक् प्रमाण प्रातिभ भी है। अत्यन्त अभ्यास के वश से अन्य जनों के द्वारा नहीं जाने गये रत्न, स्वर्ण आदि के प्रभाव की तुरन्त प्रतिपत्ति होना देखा जाता है। उन मीमांसक आदि विद्वानों का आचार्य समाधान करते हैं साध्य के साथ अविनाभाव रखना ही अर्थापत्ति प्रमाण को उत्पन्न कराने वाला सिद्ध किया गया है तथा सम्भव, प्रातिभ आदि प्रमाणों का उत्थापक जो हेतु माना गया है, वह भी अविनाभावी हेतु से भिन्न नहीं है, अर्थात्-अविनाभावी उत्थापक हेतुओं से उत्पन्न हुए सम्भव आदि भी अनुमान प्रमाण में गर्भित हो जाते हैं // 392 // .. ___इस कथन से ज्ञापक हेतु के दृष्टान्त से निरपेक्षता का कथन कर दिया है। अर्थात् अन्वय दृष्टान्त के बिना भी हेतुओं से साध्य का ज्ञान अनुमान द्वारा हो जाता है अतः लिंग से उत्पन्न हुए अनुमान प्रमाण से अतिरिक्त अर्थापत्ति, सम्भव, प्रातिभ आदि पृथक् प्रमाण नहीं हैं। जैसे प्रत्यक्ष के कारण चक्षु, कर्मक्षय, क्षयोपशम आदि भिन्न जाति के होते हुए भी उनका कार्य प्रत्यक्ष एकसा माना गया है॥३९३॥ इस मतिः स्मृति:' आदि सूत्र में मतिज्ञान के विशेष भेदों को उपलक्षणरूप से स्थित होना कहा है। अर्थात्-जैसे 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्', कौओं से दही की रक्षा करना। यहाँ कौआ पद से दही को बिगाड़ने वाली बिल्ली, कुत्ता आदि सबका ग्रहण होता है। ऐसे ही स्मृति आदि से सभी प्रातिभ, स्वानुभूति, 1. तौलने/मापने का एक विशेष परिमाण /
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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