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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 234 सहचारिनिषेधेन मिथ्याश्रद्धानमीक्षितम् / तन्निहत्येव तद्घातितत्त्वश्रद्धानमंजसा // 268 तदभावे च मत्याद्यविज्ञानं विनिवर्तते। मतिज्ञानादिभावेन तदास्य परिणामतः // 269 // ___ सहचरविरुद्धोपलब्धिरपि हि गमिका प्रतीयते इति प्रसिद्धासौ। .. तथा सहचरद्विष्ठकार्यसिद्धिर्निवेदिता। प्रशमादिविनिर्णीतेस्तन्नास्मास्विति साधने // 270 // तस्मिन् सहचरव्यापि विरुद्धस्योपलंभनम् / सद्दर्शनत्वनिर्णीतेरिति तज्जैरुदाहृतम् // 271 // तदेतत्सहचरव्यापि द्विष्ठकार्योपलंभनम्। प्रमाणादिप्रतिष्ठानसिद्धेरिति निबुध्यताम् // 272 // सहचारिनिमित्तेन विरुद्धस्योपलंभनं। तन्नास्त्यस्मासु दृग्मोहः प्रतिपक्षोपलंभतः // 273 // यथेयं सहचरविरुद्धोपलब्धिर्नास्ति मयि मत्याद्यज्ञानं तत्त्वश्रद्धानोपलब्धेरिति तथा इस प्रकार सम्यक्प से विवेचन कर दिये गये, कार्य का साध्य के साथ अविनाभाव सिद्ध है। प्रतिषेध करने योग्य साध्य में सहचारी के विरुद्ध की उपलब्धिरूप (सहचर विरुद्धोपलब्धि) हेतु देखा गया है जैसे मुझ में मति आदि अज्ञान (कुमति, कुश्रुत, विभंग अज्ञान) नहीं हैं, क्योंकि जीव आदि तत्त्वार्थों में श्रद्धा की सिद्धि है। यहाँ सहचारी के निषेध में मिथ्याश्रद्धान दृष्टिगोचर हो रहा है अतः निषेध्य कुज्ञानों के साथ रहने वाले मिथ्याश्रद्धान से विरुद्ध तत्त्वश्रद्धान की सिद्धि देखी जाती है अत: उस मिथ्याश्रद्धान को घातने वाला तत्त्वश्रद्धान उस मिथ्याश्रद्धान को शीघ्र नष्ट कर ही देता है और मिथ्याश्रद्धान का अभाव होने पर कुमति, कुश्रुत, विभंग अज्ञानों की विशेषतया निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि उस समय तत्त्वश्रद्धान के होने पर इस कुज्ञान का ही उत्तरकाल में सुमति, सुश्रुत और अवधिज्ञान पर्याय रूप में परिणमन हो जाता है॥२६७-२६८-२६९॥ ___ सहचरविरुद्ध उपलब्धि भी अपने साध्य की ज्ञापिका प्रतीत होती है अत: वह भी हेतु के भेदों में प्रसिद्ध है अर्थात् सहचरोपलब्धि हेतु भी प्रसिद्ध है। इसी अनुमान में सहचर विरुद्ध कार्य उपलब्धि का निवेदन कर दिया गया समझ लेना चाहिए। जैसे हम लोगों में कुज्ञान नहीं है, क्योंकि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आदि गुणों का विशेषरूप से निर्णय हो रहा है। इस प्रकार साधन (हेतु) घटित हो जाता है। __ अर्थात् निषेध करने योग्य मत्यज्ञान आदि का सहचारी मिथ्याश्रद्धान है। उससे विरुद्ध तत्त्वश्रद्धान है उसका कार्य प्रशम आदि गुणों की सिद्धि है।।२७०॥ __ उस पूर्वोक्त साध्य को साधने में ही सम्यग्दर्शनपने का निर्णय करना रूप हेतु लगा देने से सहचर व्यापक विरुद्ध की उपलब्धि हो जाती है इस प्रकार अनुमानवेत्ता विद्वानों ने उदाहरण दिया है॥२७१॥ इसी अनुमान में प्रमाण, प्रमेय, वस्तुत्व, आत्मा आदि तत्त्वों की प्रतिष्ठापूर्वक सिद्धि होने से इस प्रकार हेतु लगा देने से यह सहचरव्यापकविरुद्ध-कार्य उपलब्धि समझ लेनी चाहिए / अर्थात् मिथ्याज्ञान का सहभावी मिथ्या श्रद्धान है; उसका व्यापक मिथ्यादर्शन है; उससे विरुद्ध सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन का कार्य है-प्रमाण, प्रमाता, संवर, निर्जरा आदि तत्त्वों की प्रतिष्ठा कराना // 272 // निषेध्य साध्य के सहचारी के निमित्त कारण से विरुद्ध उपलब्धिरूप पृथक् हेतु है। उसका उदाहरण
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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