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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 232 पुंसोऽचारित्रप्रसिद्धेः पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरमिति वचनादन्यथा तद्व्याघातादिति चेन्न, मिथ्याचारित्रस्य मिथ्यागमादिज्ञानपूर्वस्य पंचाग्निसाधनादेर्निषेधत्वात् / चारित्रमोहोदये सति निवृत्तिपरिणामाभावलक्षणस्याचारित्रस्य तु निषेध्यत्वानिष्टेर्मोहोदयमात्रापेक्षित्वस्य तु द्वयोरप्यचारित्रमिथ्याचारित्रयोरभेदेन वचनमागमे व्यवस्थितिविरुद्धमेव मिथ्यादर्शने मिथ्याचारित्रस्यांतर्भावाच्च मिथ्याज्ञानवत्॥ कारणद्विष्ठकार्योपलब्धिर्याथात्म्यवाकृतः। तस्य तेनाविनाभावात् पारंपर्येण तत्त्वतः // 263 // नास्ति मिथ्याचारित्रमस्य याथात्म्यवाकृदिति कारणविरुद्धकार्योपलब्धि: मिथ्याचारित्रस्य हि निषेध्यस्य कारणं मिथ्याज्ञानं तेन विरुद्धं सम्यग्ज्ञानस्य कार्य याथात्म्यवचनं तन्निर्माय सुविवेचितं निषेध्याभावं साधयत्येव अत: वह सम्यग्ज्ञान का प्रकाश मिथ्याचारित्र के कारणभूत मिथ्याज्ञान की निवृत्ति को करता है और मिथ्याज्ञान की निवृत्ति उस मिथ्याचारित्र की विशेष रूप से निवृत्त कराने वाली हो जाती है।।२६१-२६२॥ शंका : सम्यग्ज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति अवश्य हो जाती है किन्तु मिथ्याज्ञान की निवृत्ति तो मिथ्याचारित्र की निवृत्ति कराने वाली नहीं है, क्योंकि जिस आत्मा के सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो गया है, उसके भी अचारित्र की प्रसिद्धि है। ‘एवं पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम्' पूर्व के सम्यग्ज्ञान के लाभ होने पर भी उत्तरवर्ती चारित्र भजनीय है। अर्थात् सम्यग्ज्ञान हो जाने पर भी चारित्र हो भी अथवा नहीं भी हो, ऐसा मूलसूत्र अनुसार वार्तिक शास्त्रों में कहा गया है। यदि सम्यग्ज्ञान के होने पर सम्यक्चारित्र की भी सिद्धि . मानी जाती है तब तो उस अकलङ्कवचन का व्याघात होता है। समाधान : इस प्रकार कहना उचित नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान हेतु से मिथ्याआगम, मिथ्याउपदेश, हिंसापोषकवेद आदि के ज्ञानों को कारण मानकर उत्पन्न होने वाले पंच अग्निसाधन आदि मिथ्याचारित्रों का निषेध किया गया है परन्तु चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले निवृत्तिपरिणामों के अभावस्वरूप अचारित्र का निषेध नहीं किया गया है। क्योंकि उसका निषेध करना अति सामान्यरूप से मोहनीयकर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला अचारित्र और मिथ्याचारित्र दोनों में भी अभेद करके आगम में निरूपण किया गया है। अथवा मिथ्याचारित्र और अचारित्र का अभेद करके कथन करना तो आगम व्यवस्था के विरुद्ध ही है। अथवा मिथ्यादर्शन में मिथ्याज्ञान के समान मिथ्याचारित्र का अन्तर्भाव किया गया है अत: मिथ्याज्ञान की निवृत्ति मिथ्याचारित्र को निवृत्त कराने वाला उत्तरवर्ती गुण भजनीय है। यह विशेषचारित्र की अपेक्षा से कथन है सामान्य की अपेक्षा नहीं है। कारण विरुद्ध कार्य उपलब्धि का उदाहरण इस प्रकार है कि इसके मिथ्याचारित्र नहीं है क्योंकि सत्यार्थवचन बोल रहा है। वस्तुतः विचारा जाए तो उस यथार्थ वचन का उस मिथ्याचारित्र के अभाव के साथ परम्परा से अविनाभाव है अत: यह हेतु साध्य का ज्ञापक है॥२६३॥ ___इस जीव के मिथ्याचारित्र नहीं है, यथार्थ स्वरूप वचन प्रयोग होने से; इस अनुमान में दिया गया हेतु कारणविरुद्ध कार्यउपलब्धिरूप है क्योंकि निषेध करने योग्य मिथ्याचारित्र का कारण मिथ्याज्ञान है उस
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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