________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 217 तद्व्यतिरिक्तसंतानसिद्धेः। कालादिविशेषात्संतान: संतानिभ्यो व्यतिरिक्त इति चेत् , कुत: कालादिविशेषस्तेषां संतानस्यानादिपर्यवसानत्वादप्रतिनियतक्षेत्रकार्यकारित्वाच्च संतानिनां तद्विपरीतत्वादिति चेन्न, तस्य पदार्थांतरत्वप्रसंगात् / संतानो हि संतानिभ्यः सकलकार्यकरणद्रव्येभ्योर्थांतरं भवंस्तद्वृत्तिरतद्वृत्तिर्वा ? तद्वृत्तिश्चेन्न तावदगुणस्तस्यैकद्रव्यवृत्तित्वात् / संयोगादिवदनेकद्रव्यवृत्तिः संतानो गुण इति चेत् स तर्हि संयोगादिभ्योऽन्यो वा स्यात्तदन्यतमो वा ? यद्यन्यः स तदा चतुर्विंशतिसंख्याव्याघात:, तदन्यतमश्चेत् तर्हि न तावत्संयोगस्तस्य विद्यमानद्रव्यवृत्तित्वात्। संतानस्य कालत्रयवृत्तिसंतानिसमाश्रयत्वात्। तत एव न विभागोपि परत्वमपि वा तस्यापि देशापेक्षस्य वर्तमानद्रव्याश्रयत्वात् / पृथक्त्वं इत्यप्यसारं, भिन्नसंतानद्रव्यपृथक्त्वस्यापि सन्तानियों से सन्तान अभिन्न है। यदि काल आदि विशेषों की अपेक्षा संतानियों से संतान भिन्न है, तो संतानियों और संतान के काल आदि विशेष क्यों है? यदि कहो कि संतान का काल अनादि से अबतक है और संतानी का उससे विपरीत है, (सादिसान्त है) तथा संतान को विशेषरूप से अनियत सर्व क्षेत्रों में कार्य का कर्त्तापना है और संतानी व्यक्ति नियत क्षेत्र में कार्य को करता है। इस प्रकार संतान और संतानियों का देश, काल पृथक्-पृथक् है परन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर उस संतान को संतानियों से सर्वथा भिन्न पदार्थ हो जाने का प्रसंग आता है। __पूर्व, उत्तर कालों में होने वाले सम्पूर्ण कार्यकारण द्रव्यरूप संतानियों से सर्वथा भिन्न संतान उन संतानियों में रहती है? अथवा उन संतानियों में नहीं रहता है? यदि पहले पक्ष के अनुसार उन संतानियों में संतान की वृत्ति है ऐसा मानोगे तो अनेक कार्य कारणरूप द्रव्यों में रहने वाला संतान गुण पदार्थ तो हो नहीं सकता है। क्योंकि रूप, रस आदिक गुण एक द्रव्य में रहते हैं। यदि संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्वित्व आदि संख्या इन गुणों के समान संतान को भी अनेक द्रव्यों में रहने वाला मानोगे तो वह संतान संयोगादि गुणों से भिन्न है कि अभिन्न है? यदि वह संतान संयोग आदिकों से भिन्न है, तब तो गुणों की (रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन वैशेषिकों के यहाँ नियत) चौबीस संख्या का विघात होता है। यदि संतान संयोग आदिकों से अभिन्न है, ऐसा मानोगे तब तो वह संतान सर्वप्रथम संयोगस्वरूप तो हो नहीं सकती क्योंकि वह संयोगगुण वर्तमान काल में विद्यमान द्रव्यों में रहता है और संतान तीनों काल में स्थित संतानियों के आश्रित है। अत:, संयोग गुणस्वरूप संतान नहीं हो सकती। तथा विभागरूप भी संतान नहीं है। अर्थात् विभाग भी वर्तमानकाल के अनेक द्रव्यों में रहता है किन्तु संतान तीनों काल के संतानियों में रहने वाली मानी गई है तथा परत्वगुणरूप भी संतान नहीं है, क्योंकि परत्व भी देश आदिक की अपेक्षा रखता हुआ वर्तमानकाल के द्रव्यों के आश्रित है, किन्तु संतान तीनों काल के द्रव्य या पर्यायों में रहता है। अनेक पदार्थों में रहने वाला संतान पृथक्त्व गुणरूप है, यह कहना भी सार रहित है, क्योंकि ऐसा मानने पर भिन्न संतान वाले द्रव्यों में स्थित पृथक्त्व को भी संतानत्व का प्रसंग आता है। 1. जैनाचार्य कहते हैं