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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 200 एतेन पंचरूपत्वं हेतोर्ध्वस्तं निबुध्यते। सत्त्वादिष्वग्निजन्यत्वे साध्ये धूमस्य केनचित् // 18 // अग्निजन्योयं धूमः सत्त्वात् द्रव्यत्वाद्वा धूमे सत्त्वादेरसंदिग्धत्वात्। तथान्वयं पूर्वदृष्टधूमेग्निजन्यत्वे व्याप्तस्य सत्त्वादेः सद्भावात् व्यतिरेकश्च खरविषाणादौ साध्याभावे साधनस्य सत्त्वादेरभावनिश्चयात् / तथात्राबाधितविषयत्वं विवादापन्ने धूमेग्निजन्यत्वस्य बाधकाभावात्। तत एवासत्प्रतिपक्षत्वमनग्निजन्यत्वसाधनप्रतिपक्षानुमानसंभवादिति सिद्धं साधारणत्वं पंचरूपत्वस्य त्रैरूप्यवत् सामस्त्येन व्यतिरेक निश्चयस्याभावादसिद्धमिति चेन्न, तस्यान्यथानुपपन्नत्वरूपत्वात् / तदभावे जीव आदि भी हैं। अर्थात्-सामान्य रूपसे सत्पना भी हेतु का या किसी विशेष पदार्थ का लक्षण नहीं हो सकता है क्योंकि सत्त्वपना हेतु समान हेत्वाभासों में भी घटित होता है। ___ इस प्रकार उक्त कथन के द्वारा हेतु का पंचरूपपना लक्षण भी निरस्त कर दिया गया, ऐसा समझ लेना चाहिए। क्योंकि धूम को किसी के भी द्वारा अग्नि से जन्यपना साधने पर सत्त्व, द्रव्यत्व आदि असत् हेतुओं में पंचरूपपना घटित हो जाता है॥१८८॥ नैयायिक का कथन - यह धुआँ अग्नि से उत्पन्न हुआ है सत्त्व होने से अथवा द्रव्यत्व होने से इस अनुमान में दिये गये सत्त्व, द्रव्यत्व, पौद्गलिकत्व हेतुओं का संदेहरहित धूमरूप पक्ष में अस्तित्व है तथा अन्वय दृष्टान्तरूप सपक्ष में भी हेतु का अस्तित्व है। पूर्वदृष्ट धुएँ में अग्निजन्यपने से व्याप्त सत्त्व आदि हेतुओं का सद्भाव है और विपक्ष व्यावृत्तिरूप व्यतिरेक भी बन जाता है। अग्निजन्यत्वरूप साध्य के नहीं होने से खरविषाण, आदि विपक्षों में सत्त्व आदि हेतुओं का अभाव निश्चित है, उसी प्रकार चौथा रूप अबाधित विषयपना भी सत्त्वादि हेतुओं में घट जाता है। विवाद में पड़े हुए धूमरूपपक्ष में अग्नि से जन्यपनारूप साध्य का कोई दूसरा बाधकप्रमाण नहीं है। सभी धुआँ आग से उत्पन्न है अतः पक्ष में साध्य के बाधक प्रमाणों के न होने से सत्त्व आदि हेतु सत्प्रतिपक्ष दोष से रहित है। साध्य से विपरीत अग्निजन्यपन के अभाव को साधने के लिए किसी प्रतिपक्षी अनुमान की सम्भावना नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिक का पंचरूपत्व भी बौद्धों के त्रैरूप्य के समान हेतु का साधारण स्वरूप सिद्ध होता है परन्तु हेतु का समीचीन लक्षण पंचरूपत्व नहीं हो सकता। 'पूर्णरूप से व्यतिरेक के निश्चय का अभाव होने से निश्चय सत्त्व हेतु असिद्ध है अतः हेतु को पंचरूप ही होना चाहिए।' ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि वास्तव में हेतु का लक्षण अन्यथानुपपत्ति रूप ही सिद्ध है। उस अन्यथानुपपत्ति के अभाव में शेष चार रूप बने भी रहें तो भी कुछ प्रयोजन को साधने वाले न होने से वे अकिंचित्कर ही हैं। उस एक अन्यथानुपपत्ति से रहित (विकल) पंचरूपत्व, त्रिरूपत्व आदि को अलक्षण द्वारा साधने योग्य होने से यह हमारा अतिदेश करना समुचित है। अर्थात् समीचीन हेतुओं का अतिक्रमण कर सत्त्व आदि हेत्वाभासों में पंचरूप स्थित होने से पंचरूपत्व हेतु का लक्षण अति-व्याप्ति दोष से दूषित है, यह हमारा कहना ठीक ही है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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