SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 194 निष्कल: सकृदनेकदेशदेहं व्याप्नोत्यात्मेति कः श्रद्दधीत? परममहत्त्वाद्व्याप्नोत्येवेति चेद्व्याहतमिदं निरंशः परममहान् वेति परमाणोरपि परममहत्त्वप्रसंगात्। यदि पुनः स्वारंभकावयवाभावानिरवयवत्वमात्मनो गगनत्वादिवदिति मतं तदा परमतसिद्धिः सर्वथा निरवयवत्वासिद्धेः परमाणुप्रमीयमाणस्वात्मभूतावयवानामात्मनोप्रतिषेधादिति समर्थयिष्यते॥ अनेकांतात्मकं सर्वं सत्त्वादित्यादि साधनं / सम्यगन्वयशून्यत्वेप्यविनाभावशक्तितः // 17 // नित्यानित्यात्मकः शब्दः श्रावणत्वात्कथंचन / शब्दत्वाद्वान्यथाभावाभावादित्यादिहेतवः // 175 // हेतोरन्वयवैधुर्ये व्यतिरेको न चेन्न वै। तेन तस्य विनैवेष्टेः सर्वानित्यत्वसाधने // 176 // निश्चितो व्यतिरेक एव ह्यविनाभावः साधनस्य नान्यः स चोपदर्शितस्य सर्वस्य हेतोरन्वयासंभवेन सिद्ध्यत्येव। सत्येवाग्नौ धूम इत्यन्वयनिश्चयेग्न्यभावे न क्वचिद्धूम इति व्यतिरेकनिश्चयस्य दृष्टत्वात् / ____ भावार्थ : घट-पट आदि को बनाने वाले कपाल, तंतु आदि अवयवों के समान चित्तलक्षण वाले आत्मा को बनाने वाले कोई अवयव नहीं हैं अत: आत्मा अवयवरहित है किन्तु परमाणु के बराबर आकाश प्रदेशों से नाप लिये गये स्वकीय अंशों पर शरीरव्यापी आत्मा तदात्मक होकर रहता है अत: आत्मा अवयवों से सहित सांश है, इस प्रकरण का युक्तिपूर्वक निरूपण आगे करेंगे। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सत्ता सहित होने से सम्पूर्ण पदार्थ अनेक धर्मों से तदात्मक हैं। तथा अर्थक्रिया को करने वाले होने से सभी पदार्थ परिणामी हैं, इत्यादि हेतु सम्यक्प्रकार से अन्वय से रहित हैं फिर भी अविनाभाव नाम के गुण की सामर्थ्य से समीचीन माने गए हैं (जब सभी पदार्थ पक्षकोटि में हैं, तो सपक्ष बनाने के लिए कोई पदार्थ शेष नहीं रह जाता है अतः उक्त हेतु की सपक्ष में वृत्ति नहीं है, और भी हेतु ऐसे हैं, जो कि सपक्ष में नहीं रहते हैं) शब्द द्रव्यार्थिक नय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्यरूप है, कर्ण इन्द्रिय से उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष का विषय होने से, अथवा शब्द कथंचित् नित्य अनित्य रूप है शब्दपना होने से, यद्यपि इन दो अनुमानों में घट, पट आदि सपक्ष तो है, किन्तु उनमें श्रावणत्व और शब्दत्व हेतु नहीं रहते हैं। क्योंकि अन्यथाभाव (यानी साध्य के नहीं होने पर हो जाने का अभाव होने से) श्रावणत्व, शब्दत्व इत्यादि हेतु भी व्यतिरेक की सामर्थ्य से सद्धेतु हैं॥१७४-१७५॥ बौद्ध : सपक्षवृत्तिरूप अन्वय के वियोग हो जाने पर अन्यथानुपपत्तिरूप व्यतिरेक भी नहीं हो सकता। जैनाचार्य: ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि उस अन्वय के बिना ही उस व्यतिरेक का बन जाना नियम से अभीष्ट है। बौद्धों के यहाँ भी सर्वपदार्थों का अनित्यपना साधन करने पर अन्वय के बिना भी सत्त्व और अनित्य का अविनाभाव मान लिया गया है॥१७६।। . प्रत्यक्षादि प्रमाणों से निश्चित व्यतिरेक ही हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव है, इससे अन्य कोई अविनाभाव नहीं है, और वह अविनाभाव दिखलाये गये सम्पूर्ण हेतुओं का अन्वय के असंभव होने पर तो सिद्ध नही होता है। अग्नि के होने पर ही धुआँ है, इस प्रकार के अन्वय का निश्चय होने पर ही अग्नि के न होने पर कहीं भी धूम नहीं रहता है, इस प्रकार के व्यतिरेक का निश्चय होना देखा गया है तथा अग्नि
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy