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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 193 स्वकार्यस्याभावादभावसाधने भस्मादौ चैतन्यस्य स्वकार्यनिवृत्तिनिश्चयादभावो निश्चेतव्य इति विपक्षे बाधकप्रमाणादेव प्राणादिमत्त्वस्य व्यतिरेक: साध्यते न पुनरदर्शनमात्रेण यतः संशयहेतुत्वं रागादौ वक्तृत्वादेरिव स्यात्। न चैवमपरिणामिनात्मना सात्मकं जीवच्छरीरस्य सिद्ध्यति। यतःपरिणामिनमात्मानमंतरेण क्रमाक्रमौ। न स्यातां तदभावे च न प्राणादिक्रिया क्वचित् // 172 // तन्नैकांतात्मना जीवच्छरीरं सात्मकं भवेत्। निष्कलस्य सहानेकदेशदेहास्तिहानितः॥१७३॥ जगत् में अप्रतिभासमान पदार्थों का सद्भाव कहना विरुद्ध है अत: कहीं भी शुद्ध संवेदन में किसी वेद्य आकार या वेदक आकार का अभाव भी अपने निजी कार्यों की निवृत्ति होने का निश्चय हो जाने से निश्चित कर लेना चाहिए। इस प्रकार सभी जीवित शरीर आत्मा सहित हैं, प्राण आदि करके विशिष्ट होने से। इस अनुमान में पड़े हुए प्राणादिमत्त्व हेतु का पत्थर आदि विपक्ष में प्राण आदि सत्ता के बाधक प्रमाण से ही व्यतिरेक साधा जाता है, क्योंकि किसी के नहीं दीखने मात्र से ही किसी का अभाव सिद्ध नहीं होता। जिससे कि बुद्ध के राग आदि के साधने में वक्तापन, पुरुषपन आदि हेतुओं के समान प्राणादिमत्त्व का हेतुपना संदिग्ध हो जाए। अर्थात् केवल नहीं दीखने से जैसे परमाणु, पिशाच, पुण्य, पाप आदि का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता वैसे ही आत्मा का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अपरिणामी आत्मा से जीवित शरीर के सात्मकपना नहीं होता है, क्योंकि, आत्मा को परिणामी माने बिना क्रम और अक्रम नहीं हो सकते तथा उन क्रम और अक्रम का अभाव हो जाने पर आत्मा में प्राण, चेष्टा, सुख, दुःख, संवेदन आदि क्रियायें कहीं भी नहीं हो सकतीं // 172 // __ अत: एक ही धर्मस्वरूप से जीवित शरीर आत्मा सहित नहीं होता है क्योंकि कलाओं यानी अंशों से रहित हुए आत्मा के एक साथ अनेक देशों में रहने वाली देह में विद्यमान रहने की हानि हो जाती है। भावार्थ : जीवित शरीर अपरिणामी एक धर्म वाले आत्मा के द्वारा सात्मक नहीं है। सांश आत्मा का ही शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों में नानारूप से प्रतिभास होता है॥१७३।। निरंश आत्मा मस्तक आदि अनेक देशों में स्थित शरीर को एक ही बार व्याप्त कर लेता है ऐसा कौन श्रद्धान कर सकेगा?अर्थात् कोई नहीं। ___ सबसे बड़े परम महत्त्व नाम के परिमाण का धारी होने से आत्मा अनेक देश में देह को व्याप्त कर ही लेती है। वैशेषिकों का इस प्रकार कहना व्याघात दोषयुक्त है क्योंकि जो अंशों से रहित है, वह सबसे बड़े परिमाण वाला है, ऐसा कहने पर अंशरहित परमाणु को भी परममहापरिमाण वाला होने का प्रसंग आता है। अर्थात् निरंश परमाणु भी अनेक देशों में स्थित रह सकेगा। यदि पुनः स्वारंभक अवयवों का अभाव हो जाने से आत्मा का अवयवरहितपना है, जैसे आकाश को बनाने वाले कोई छोटे अवयव नहीं हैं अतः आकाश निरवयव माना गया है। ऐसा मानने पर तो दूसरे सिद्धान्त यानी स्याद्वाद मत की सिद्धि हो जाती है क्योंकि आत्मा का सभी प्रकारों से अवयवरहितपना सिद्ध नहीं होता है। परमाणु के बराबर नाप लिये गये और निज के आत्मभूत हो रहे अवयवों (प्रदेशों) का आत्मा के कोई निषेध नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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