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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 162 सर्वेण वादिना ततः स्वेष्टसिद्धिः प्रकर्तव्या अन्यथा प्रलापमात्रप्रसंगात्। सा च प्रमाणसिद्धिमन्वाकर्षति तदभावे तदनुपपत्तेः। तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणमवश्यमभ्युपगच्छ तानुमानमुररीकर्तव्यमन्यथा तस्य सामस्त्येनाप्रमाणव्यवच्छेदेन प्रमाणसिद्ध्ययोगात्। निःसंदेहमनुमान छेदत्सता साध्यसाधनसंबंधग्राहि प्रमाणमसंदिग्धमेषितव्यमिति तदेव च तर्कः ततस्तस्य च संवादो नि:संदेह एव सिद्धोऽन्यथा प्रलापमात्रमहेयोपादेयमश्लीलविजूंभितमायातीति पर्याप्तमत्र बहुभिर्विवादैरूहसंवादसिद्धेरुल्लंघनार्हत्वात्॥ गृहीतग्रहणात्तर्कोऽप्रमाणमितिचेन्न वै। तस्यापूर्वार्थवेदित्वादुपयोगविशेषतः॥९३॥ प्रत्यक्षानुपलंभाभ्यां संबंधो देशतो गतः। साध्यसाधनयोस्तर्कात्सामस्त्येनेति चिंतितम् // 14 // प्रमांतरागृहीतार्थप्रकाशित्वं प्रपंचतः। प्रामाण्यं च गृहीतार्थग्राहित्वेपि कथंचन // 15 // सभी वादियों को अपने अभीष्ट की सिद्धि अवश्य करनी चाहिए अन्यथा (यानी अभीष्ट सिद्धि किये बिना) केवल व्यर्थ वचन कहने का प्रसंग आता है, और वह अपने अभीष्ट की सिद्धि प्रमाण की सिद्धि को खींच लेती है। प्रमाण के अभाव में इष्ट तत्त्वों की सिद्धि नहीं हो पाती है अर्थात् अभीष्ट तत्त्व सिद्धि और प्रमाण सिद्धि का ज्ञाप्यज्ञापकभाव संबंध है। प्रत्यक्ष को प्रमाण आवश्यकरूप से स्वीकार करने वाले को अनुमान प्रमाण भी अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। अन्यथा (अनुमान को प्रमाण माने बिना) समस्तरूप से उस प्रत्यक्ष को अप्रमाणों का व्यवच्छेद कर प्रमाणपन की सिद्धि न हो सकेगी। अनुमान को निःसन्देह प्रमाण स्वीकार करने वाले वादी को साध्य और साधन के अविनाभाव संबंध को ग्राहक प्रमाण का संशय रहित अन्वेषण करना चाहिए और वही तर्क ज्ञान है। उस तर्क से संबंध के ज्ञान का बाधारहित रूप संवाद होना नि:संशय सिद्ध हो ही जाता है। अन्यथा (यानी संवाद की सिद्धि हुए बिना चाहे जैसी शंका करना या अपने तत्त्वों की सिद्धि करना) केवल व्यर्थ वचन कहना है। वह हेय और उपादेय तत्त्वों की व्यवस्था कराने वाला नहीं है। इस प्रकरण में बहुत से विवाद करने क्या प्रयोजन है? तर्कज्ञान के सम्वाद होने की सिद्धि अब उल्लंघन करने योग्य नहीं है। भावार्थ : जो बौद्ध आदि विद्वान प्रत्यक्षों को प्रमाण मानते हैं, उन्हें कालान्तर, देशान्तर और पुरुषान्तरों के प्रत्यक्षों को प्रमाणपना सिद्ध करने के लिए अनुमान की शरण लेना आवश्यक है और अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति व्याप्ति ज्ञान को प्रमाण माने बिना नहीं हो सकती है, अत: तर्कज्ञान प्रमाण है। गृहीत ग्राहीहोने से तर्कज्ञान अप्रमाण है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि संबंध को जानने में तर्कका ही विशेष उपयोग होने से तर्क को अपूर्व अर्थ का निश्चय करना प्राप्त है। पहले प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ द्वारा एकदेश से संबंध जाना गया था और तर्क से साध्य साधन का संबंध सम्पूर्णरूप से जान लिया जाता है। इसका हम विस्तार से पूर्व में विचार कर चुके हैं, अतः अन्य प्रमाणों से ग्रहण नहीं किये गये अर्थ का प्रकाशकपना तर्क में घट जाता है तथा कथंचित् गृहीत अर्थ का ग्राहक होते हुए भी तर्कज्ञान का प्रामाण्य प्रतिष्ठित हो जाता है अर्थात् अनुभूत पदार्थ का ग्रहण करने वाला भी तर्कज्ञान किसी सम्बन्ध विशेष की अपेक्षा अगृहीत ग्राही होने से प्रमाणभूत है।९३-९४-९५।।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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