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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 154 समानाकारता स्पष्टा प्रत्यक्षं प्रतिभासते। वर्तमानेषु भावेषु यथा भिन्नस्वभावता // 83 // इदानींतनतया प्रतिभासमाना हि भावास्तेषु यथा परस्परं भिन्नरूपं प्रत्यक्षे स्पष्टमवभासते तथा समानमपीति सदृशेतरात्मकं स्वलक्षणसिद्धमन्यथा व्योमारविंदवत्तस्यानवभासनात् / स्पष्टावभासित्वं समानस्य रूपस्य भ्रांतमितिचेत् , भिन्नस्य कथमभ्रांत / बाधकाभावादिति चेत् , सामान्यस्पष्टावभासित्वे किं बाधकमस्ति? न तावत्प्रत्यक्षं स्वलक्षणानि पश्यामीति प्रयतमानसस्यापि स्थूलस्थिराकारस्य साधनस्य स्फुटं दर्शनात्। तदुक्तं। “यस्य स्वलक्षणान्येकं स्थूलमक्षणिकं स्फुटम्। यद्वा पश्यति वैशद्यं तद्विद्धि सदृशस्मृतेः॥” इति। . जैसे पदार्थों में भिन्न-भिन्न स्वभाव प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार वर्तमानकालीन समान आकारता भी प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतिभासित होती है अर्थात् यह इससे पृथक् है, इसका स्वभाव इससे भिन्न है इत्यादि व्यावृति बुद्धियों से, जैसे पदार्थों में विशेष प्रतिभासित होता है, उसी के समान यह भी द्रव्य है, यह उसके . समान है इत्यादि अन्वय बुद्धि के द्वारा सामान्य भी स्पष्ट दिख रहा है॥८३॥ बौद्ध : इस समय वर्तमान काल में स्वभाव से प्रतिभासमान पदार्थ है। उनमें परस्पर एक दूसरे से भिन्न स्वरूप का जैसे प्रत्यक्षज्ञान में स्पष्ट प्रतिभास होता है, उसी प्रकार से पदार्थ परस्पर में समान हैं इस समानरूप का भी प्रत्यक्ष ज्ञान में स्पष्ट प्रतिभास होता है। इस प्रकार सदृश और विसदृश धर्मस्वरूप स्वलक्षण पदार्थ सिद्ध है अन्यथा (नि:स्वरूप उस सामान्य विशेष रहित स्वलक्षण का) आकाश पुष्प समान किसी को कभी प्रकाशन नहीं होता है। पदार्थों के सामान्यस्वरूप का स्पष्ट प्रतिभास होना तो भ्रान्त है (वस्तुभूत विशेषात्मक स्वलक्षण का ही स्पष्ट प्रकाश होता है अवस्तुभूत सामान्य का नहीं।) इस प्रकार बौद्धों के कहने पर जैन कहते हैं कि वैसादृश्य (यानी एक दूसरे से सर्वथा भिन्न रूप) का प्रतिभास होना भ्रान्ति रहित कैसे कहा जा सकता है? अर्थात् ऐसा कहने पर पदार्थों में वैसादृश्य का जानना भी भ्रमरूप हो जाएगा। यदि कहो कि वैसादृश्य का जानना बाधक प्रमाण न होने के कारण अभ्रांत है, तो सामान्य का स्पष्ट प्रकाश होने में कौनसा बाधक प्रमाण है? प्रत्यक्ष ज्ञान तो सादृश्य का बाधक नहीं है, क्योंकि स्वलक्षणों को मैं देख रहा हूँ, इस प्रकार प्रयत्न करने वाले भी पुरुष के अर्थक्रिया को साधने वाले स्थूल, स्थिर, साधारण आकार वाले अर्थ का स्पष्ट प्रदर्शन हो रहा है अर्थात् प्रत्यक्ष द्वारा सर्वथा सूक्ष्म, क्षणिक, विसदृश ऐसे कोई पदार्थ नहीं दिख रहे हैं किन्तु स्थूल, कालान्तर तक ठहरने वाले, सदृश, अर्थों का विशद प्रत्यक्ष हो रहा है। वही ग्रन्थों में कहा है कि जिसके यहाँ स्वलक्षणों को जानने वाला प्रत्यक्ष ही एक स्थूल, अक्षणिक ऐसे पदार्थ को स्पष्ट देख रहा है, अथवा वैशद्यरूप देख रहा है, उसी के समान सादृश्य को भी प्रत्यक्ष ज्ञान स्पष्ट देख रहा है क्योंकि पीछे से सदृश पदार्थ की स्मृति होती है। __भावार्थ : यदि सादृश्य को प्रत्यक्ष न देखा होता तो पीछे स्मरण कैसे होता ? अत: पीछे से सादृश्य की स्मृति होने से सादृश्य का प्रत्यक्ष होना सिद्ध होता है। सामान्य को स्पष्ट रूप से देखने में अनुमान भी बाधक नहीं है, क्योंकि, ऐसे अनुमान का उत्थापन करने वाले हेतु का अभाव है। प्रत्येक पदार्थ या पर्याय
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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