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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 153 संवादशून्यं न प्रमाणं नामातिप्रसंगात्। कल्पनारोपितादेव स्वार्थसंवादात्प्रमाणत्वे मनोराज्यादिविकल्पकलापस्य प्रमाणत्वानुषंगात् तादृक्संवादस्य सद्भावादिति कश्चित् तं प्रत्याह;भेदाभेदविकल्पाभ्यां सादृश्यं येन दूष्यते। वैसादृश्यं कुतस्तस्य पदार्थानां प्रसिद्ध्यतु॥८१॥ विसदृशानां भावो हि वैसादृश्यं तच्च पदार्थेभ्यो भिन्नमभिन्न भिन्नाभिन्नं वा स्यादतोऽन्यगत्यभावात्। सर्वथा सादृश्यपक्षभावी दोषो दुर्निवार इति कुतस्तत्सिद्धिः। सादृश्यवद्वसदृशमपि न परमार्थमर्थक्रियाशून्यत्वात् स्वलक्षणस्यैव सत्त्वस्य परमार्थत्वात्। तस्यार्थक्रियासमर्थत्वादितिचेत् , न वैसादृशसादृश्यत्यक्तं किंचित्स्वलक्षणं। प्रमाणसिद्धमस्तीह यथा व्योमकुशेशयं // 8 // प्रत्यक्षसंविदि प्रतिभानं स्पष्टं स्वलक्षणमिति चेत्विषय में संवाद से शून्य होने से प्रमाण नहीं हो सकता। यदि संवाद रहित ज्ञान को प्रमाण माना जाएगा तो अति-प्रसंग दोष आएगा। अर्थात् संशय आदि ज्ञान भी प्रमाण हो जाएगा। ____ यदि कल्पना से आरोपित स्वार्थ संवाद से प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण माना जाएगा तो मनोराज्य (मानसिक भावना से कल्पित राजा, मंत्री) आदि विकल्प ज्ञानों के समुदाय के भी प्रमाणत्व का प्रसंग आएगा, क्योंकि कल्पना से आरोपित संवादकत्व मनोराज्यादि कल्पना में भी विद्यमान हैं। ऐसा कोई (बौद्ध) कहता है उसके प्रति आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं जिसके द्वारा भेद और अभेद का विकल्प उठाकर सादृश्य को दूषित किया जाता है, उनके मत में पदार्थों का वैसादृश्य कैसे सिद्ध हो सकता है? // 81 // जो विलक्षण पदार्थों का भाव वैसादृश्य माना गया है, वह विसमानता विलक्षण पदार्थों से भिन्न है? या अभिन्न है? अथवा भिन्न अभिन्न है? इससे अन्य कोई गति नहीं है (यानी कोई उपाय नहीं है)। इन तीनों पक्षों में वे ही सादृश्य के पक्ष में होने वाले दोष सर्वथा कठिनता से भी नहीं हटाये जा सकते हैं अत: उस वैसादृश्य की सिद्धि कैसे हो सकती है? अर्थात् विभिन्न पदार्थों में पड़ी हुई विसमानता यदि उनसे सर्वथा भिन्न है तो “यह उनकी है" यह व्यवहार सर्वथा भेदपक्ष में नहीं हो सकता है। * बौद्ध कहते हैं- सादृश्य के समान वैसादृश्य भी वास्तविक नहीं है। अर्थक्रिया से शून्य होने से सदृशविसदृश से रहित स्वलक्षण तत्त्व ही अनेक अर्थक्रियाओं के करने में समर्थ है इसलिए वही परमार्थ है। प्रत्युत्तर में आचार्य कहते हैं - वैसादृश्य और सादृश्य से रहित कोई भी स्वलक्षण प्रमाणों से सिद्ध नहीं है। जैसे इस लोक में सामान्य विशेषों से रहित आकाशपुष्प प्रमाणसिद्ध नहीं है (यानी असत् है) // 82 // .. बौद्ध कहते हैं कि स्वलक्षण तो प्रत्यक्ष ज्ञान में स्पष्टरूप से प्रतिभासित है। उसका आचार्य उत्तर देते हैं कि
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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