________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 151 ततो नैकत्वं प्रत्यभिज्ञानं सावद्यं सर्वदोषपरिहारात्॥ सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमेतेनैव विचारितम् / प्रमाणं स्वार्थसंवादादप्रमाणं ततोन्यथा // 80 // नन्विदं सादृश्यं पदार्थेभ्यो यदि भिन्नं तदा कुतस्तेषामिति प्रदृश्यते। संबंधत्वाच्चेत् , कः पुनः सादृश्यतद्वतामांतरभूतानामकार्यकारणात्मनां संबंधः? समवाय इति चेत्, कः पुनरसौ? न तावत्पदार्थांतरमनभ्युपगमात् / अविभ्रमद्भाव इति चेत् सर्वात्मनैकदेशेन वा प्रतिव्यक्ति / सर्वात्मना चेत्सादृश्यबहुत्वप्रसंगः / न चैकत्र सादृश्यं तस्यानेकस्वभावत्वात्। यदि पुनरेकदेशेन सादृश्यं व्यक्तिषु समवेतं तदा सावयवत्वं स्यात्। तथा च तस्य सावयवैः संबंधचिंतायां स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्था। यदि पुनरभिन्नं एकत्व को जानने वाला प्रत्यभिज्ञान सदोष नहीं है, क्योंकि प्रतिवादियों द्वारा उठाये गए सम्पूर्ण दोषों का परिहार कर दिया गया है। इस कथन से सादृश्य को विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान का भी विचार किया गया है। अपने और अर्थ के जानने में संवादकत्व होने से वह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान प्रमाण होता है और उससे अन्यथा होने पर (यानी सादृश्य प्रत्यभिज्ञान के स्व और सादृश्य विषय में व्यभिचार या बाधा उपस्थित होने पर) वह सादृश्यज्ञान अप्रमाण हो जाता है।८०॥ बौद्ध : यह सदृशपना यदि पदार्थों से भिन्न है, तब तो उन पदार्थों का यह सादृश्य है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि जो जिससे भिन्न होता है, उन पदार्थों में स्वस्वामी आदि संबंध को कहने वाली षष्ठी विभक्ति नहीं होती है। यदि भेद रहने पर भी सदृश पदार्थ और सादृश्य का संबंध हो जाने से “उनका यह सादृश्य है" यह व्यवहार करेंगे तब तो सर्वथा भिन्न-भिन्न पड़े हुए और कार्यकारणस्वरूप नहीं होने वाले उन सादृश्य और सादृश्यवान अर्थों का फिर कौनसा संबंध माना जायेगा? ____ यदि सदृश और सादृश्य का समवाय संबंध है, ऐसा कहोगे तो वह समवाय क्या पदार्थ है? वैशेषिकों के समान स्वतंत्र पृथक् पदार्थ तो समवाय है नहीं क्योंकि जैनों ने वैशेषिकों के समवाय को स्वीकार नहीं किया है। बौद्ध : वह समवाय यदि अविष्वग्भावरूप है यानी पृथग्भाव न होने देना स्वरूप है तब तो वह सादृश्य सम्पूर्ण अंशों में रहता है? या एकदेश में रहता है? यदि गौ आदि प्रत्येक व्यक्तियों में पूर्ण रूप से सादृश्य रहता है तब तो बहुत से सादृश्य होने का प्रसंग आयेगा क्योंकि जो अनेक व्यक्तियों में प्रत्येक में पूरे भागों में रहता है, वह एक नहीं अनेक है। एक ही व्यक्ति में पूर्व अर्शी सं जब सादृश्य रह जाता है तो उस एक ही में रहने वाले को सदृशपना प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वह सादृश्य तो अनेक स्वभाव रूप है अर्थात् सादृश्य दो आदि व्यक्तियों में रहता है, एक में नहीं। यदि फिर एक ही सादृश्य का अनेक व्यक्तियों में एक-एक देश से समवाय संबंध द्वारा रहना मानोगे तब तो वह सादृश्य अपने एक एकदेशरूप अवयवों से सहित होने से सावयवी हो जायेगा और वैसा होने पर उस सादृश्य का अपने अवयवों के साथ पुन: संबंध का विचार होने पर प्रश्न खड़ा रहेगा। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा अतः सदृश पदार्थों से भिन्न सादृश्य की सिद्धि नहीं हो सकती।