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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 150 प्रत्यभिज्ञांतरात्प्रथमप्रत्यभिज्ञाविषयस्य साधने तद्विषयस्यापि प्रत्यभिज्ञांतरात्साधनमित्यनवस्थानमिति चेन्न, प्रत्यक्षस्यापि नीलादौ प्रमाणत्वसाधने समानत्वात्। इतरथा हिनीलसंवेदनस्यार्थे नीले सिद्धे प्रमाणता। तत्र तस्यां च सिद्धायां नीलोर्थस्तेन सिद्ध्यति / / 74 // इत्यन्योन्याश्रितं नास्ति यथाभ्यासबलात्क्वचित् / स्वतः प्रामाण्यसंसिद्धेरध्यक्षस्वार्थसंविदः // 75 / / तदेकत्वस्य संसिद्धौ प्रत्यभिज्ञा तदाश्रया। प्रमाणं तत्प्रमाणत्वे तया वस्त्वेकता गतिः // 76 // इत्यन्योन्याश्रितिर्न स्यात्स्वतः प्रामाण्यसिद्धितः / स्वभ्यासात्प्रत्यभिज्ञायास्ततोन्यत्रानुमानतः // 77 // प्रत्यभिज्ञांतरादाद्यप्रत्यभिज्ञार्थसाधने। यानवस्था समा सापि प्रत्यक्षार्थप्रसाधने // 78 // प्रत्यक्षांतरत: सिद्धा स्वतः सा चेन्निवर्तते। प्रत्यभिज्ञांतरादेतत्तथाभूतान्निवर्तताम् // 79 // के प्रमाणपना आता ह और उस नीलस्वलक्षण में हुए नील ज्ञान की उस प्रमाणता के सिद्ध हो चुकने पर उस प्रमाण ज्ञान से नील स्वलक्षणरूपी अर्थ सिद्ध होता है, यह अन्योन्याश्रय दोष है। (दूसरे आदि प्रत्यक्षों से विषयसिद्धि मानने पर अनवस्था दोष भी आता है)॥४॥ यदि बौद्ध कहें कि किसी ज्ञान में प्रमाणपने की सिद्धि यथायोग्य अभ्यास के बल से स्वयं हो जाती है और किसी अर्थ में वस्तुभूतपना भी अभ्यास के सामर्थ्य से स्वयं आ जाता है अतः प्रत्यक्षरूप स्वार्थ सम्वित्ति का प्रमाणपना स्वतः ही अभ्यासवश सिद्ध है अत: अन्योन्याश्रय दोष नहीं है। तो उसी प्रकार हम स्याद्वादी भी कह सकते हैं कि कहीं उस वस्तुभूत एकत्व की समीचीन सिद्धि होने पर उसके आश्रय से प्रत्यभिज्ञान प्रमाण हो जाता है और क्वचित् उस प्रत्यभिज्ञा का प्रमाणपन सिद्ध हो चुकने पर उस प्रमाण आत्मक प्रत्यभिज्ञा के द्वारा वस्तुभूत एकपना जान लिया जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन में भी अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता है। क्योंकि अभ्यास होने से प्रत्यभिज्ञान को स्वतः ही प्रमाणपना सिद्ध हो जाता है। इस अभ्यास दशा के अतिरिक्त अनभ्यस्त दशा में अनुमान से प्रत्यभिज्ञा को प्रमाणपना सिद्ध कर लिया जाता ___ भावार्थ : वह अनुमान या उसके भी प्रमाणपन के लिए उठाया गया अन्य अनुमान अभ्यासदशा का होने से स्वत: प्रमाणरूप है अत: जैसे बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्षज्ञान के प्रमाणत्व में अन्योन्याश्रित दोष नहीं है, वैसे जैनमत में प्रत्यभिज्ञान में भी अन्योन्याश्रित दोष नहीं है॥७५-७६-७७॥ सर्वप्रथम उत्पन्न प्रत्यभिज्ञा के विषयभूत अर्थ को सिद्ध करने के लिए दूसरी आदि प्रत्यभिज्ञाओं की आकांक्षा हो जाने से जो सौगत ने अनवस्था दोष कहा था, वह दोष सौगत के प्रत्यक्ष द्वारा अर्थ का समीचीन साधन करने में भी समान ही है अर्थात् पहले प्रत्यक्ष के जाने हुए विषय की सिद्धि अन्य प्रत्यक्ष प्रमाण से की जाएगी और अन्य प्रत्यक्ष के विषय का वास्तविकपना तीसरे आदि प्रत्यक्षों से साधा जाएगा। इस प्रकार अनवस्था दोष आता है। यदि कहो कि अभ्यास दशा के स्वतः सिद्ध प्रामाण्य को रखने वाले अन्य प्रत्यक्ष से आद्यप्रत्यक्ष के विषय का यथार्थपना सिद्ध कर लिया जाता है, अत: अनवस्था दोष निवृत्त हो जाता है तो इस प्रकार हम जैन भी कह सकते हैं कि स्वतः सिद्ध प्रमाणभूत अभ्यास दशा के अन्य प्रत्यभिज्ञान से पहले प्रत्यभिज्ञान का विषय भी वस्तुभूत सिद्ध कर लिया जाता है, अत: अनवस्था दोष निवृत्त हो जाता है॥७८-७९॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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