________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 135 परापरानुमांनानां कल्पनस्य प्रसंगतः। विवक्षितानुमानस्याप्यनुमानांतराजनौ // 23 // संबंधस्मृतेर्वानुमानत्वे स्मर्तव्यार्थेन लिंगेन भाव्यं तस्य तेन संबंधस्त्वभ्युपगंतव्यस्तस्य च स्मरणं परं तस्याप्यनुमानत्वे तथेति परापरानुमानानां कल्पनादनवस्था। न ह्यनुमानांतरादनुमानस्य जनने क्वचिदवस्था नाम सा संबंधस्मृतिरप्रमाणमेवेति चेत्॥ नाप्रमाणात्मनो स्मृत्या संबंधः सिद्धमृच्छति। प्रमाणानर्थकत्वस्य प्रसंगात्सर्ववस्तुनि // 24 // न ह्यप्रमाणात् प्रमेयस्य सिद्धौ प्रमाणमर्थवन्नाम। न चाप्रमाणात् किंचित्सिद्ध्यति किंचिन्नेत्यर्धजरतीन्यायः श्रेयान् सर्वत्र तद्विशेषाभावात्॥ स्मृतिस्तदितिविज्ञानमतीते भवेत्कथम् / स्यादर्थवदिति स्वेष्टं याति बौद्धस्य लक्ष्यते // 25 // क्योंकि विवक्षा प्राप्त अनुमान की भी अन्य अनुमानों से उत्पत्ति मानने पर उत्तरोत्तर अनेक अनुमानों की कल्पना का प्रसंग होने से अनवस्था दोष आयेगा॥२२-२३॥ अविनाभाव संबंध की स्मृति को अनुमान प्रमाण मानने पर तो स्मरण करने योग्य अर्थ के साथ व्याप्ति रखने वाला दूसरा हेतु होना चाहिए। उसका भी अपने साध्य के साथ संबंध तो स्वीकार करना ही चाहिए (संबंध के बिना अकेला हेतु नहीं हो सकता)। फिर उस संबंध का स्मरण भी पृथक् मानना होगा। उस संबंध स्मरण को भी अनुमान प्रमाण कहोगे तो फिर तिस प्रकार अनुमान के लिए भी अन्य व्याप्ति स्मरणरूप अनुमानों की उत्थान आकांक्षा बढ़ती ही चली जाएगी। इस प्रकार आगे-आगे होने वाले अनुमानों की कल्पना करने से अनवस्था दोष आएगा। दूसरे अनुमान से अनुमान की उत्पत्ति होना मानने में कहीं भी ठहरना (स्थिति) नहीं हो सकती। __ “वह साधन और साध्य के संबंध की स्मृति तो अप्रमाण ही है।" वैशेषिकों के ऐसा कहने पर आचार्य उसका उत्तर देते हैं अप्रमाणस्वरूप स्मृति से साध्य और साधन का अविनाभाव संबंध सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यदि अप्रमाण ज्ञानों से ही अर्थ का निर्णय होने लगे तो सम्पूर्ण वस्तु में (यानी वस्तुओं का निर्णय करने के लिए) प्रमाणज्ञान के व्यर्थ हो जाने का प्रसंग आएगा // 24 // अप्रमाण से प्रमेय की सिद्धि मानने पर प्रमाणज्ञान तो नाममात्र भी सफल नहीं हो सकता। कुछ पदार्थों की सिद्धि तो अप्रमाण ज्ञान से हो जाती है, और किन्हीं पदार्थों की सिद्धि अप्रमाण से नहीं होती है। इस प्रकार अर्धजरतीन्याय श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि, सभी स्थलों पर उस अर्थ की स्वपर परिच्छित्ति स्वरूप सिद्धि कराने वाले पदार्थ में कोई विशेषता नहीं है। - (सौगत) सो वह था'-इस प्रकार विज्ञान करना स्मरण है, वह स्मरण अतिक्रान्त भूतकालीन अर्थ में उत्पन्न होता है अत: वह अर्थवान कैसे है? अर्थात् विषयभूत अर्थ का भूतकाल के गर्त में जाने पर स्मरण होता है। उसका ज्ञेय अर्थ वर्तमान में नहीं रहता फिर स्मरण ज्ञान को अर्थवान् कैसे मान सकते हैं? इस प्रकार कहने पर तो बौद्ध का अभीष्ट सिद्धान्त भी चला जाता है, क्योंकि सौगत ने प्रत्यक्षज्ञान का कारण