________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 134 प्रमाणत्वे स्मरणस्य तदस्तु तत एव नाभिलाषादेस्तदभावात्। न हि यथा स्मरणं स्वार्थस्मर्तव्यस्यैव प्रकाशकं तथाभिलाषादिस्तस्य मोहोदयफलत्वात्॥ समारोपव्यवच्छेदस्समः स्मृत्यनुमानतः / स्वार्थे प्रमाणता तेन नैकत्रापि निवार्यते // 21 // यथा चानुमायाः क्वचित्प्रवृत्तस्य समारोपस्य व्यवच्छेदस्तथा स्मृतेरपीति युक्तमुभयोः प्रमाणत्वमन्यथाप्रमाणत्वापत्तेः। स्मृतिरनुमानत्वेन प्रमाणमिष्टमेवं नान्यथेति चेत्॥ स्मृतिर्न लैंगिकं लिंगज्ञानाभावेपि भावतः। संबंधस्मृतिवन्न स्यादनवस्थानमन्यथा // 22 // की प्राप्ति में प्रदर्शकत्व ज्ञान की प्रवर्तकता नहीं है तथा अर्थ की ओर सन्मुख गति कराने का कारण भी ज्ञान की प्रवर्तकता नहीं है। जैसे केवलज्ञान सर्व पदार्थों को जानता है परन्तु उसमें प्रवर्तकपना नहीं है तथापि वह प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाणभूत है तथा वह स्वार्थ का प्रकाशकपन अनुमान के भी है अत: यदि अनुमान को प्रमाण माना जाएगा तो उसी प्रकार स्मरण को भी वह प्रमाणपना व्यवस्थित हो जाएगा, क्योंकि स्मृति में भी स्वार्थ प्रकाशकत्व है। स्मृति ज्ञान के अभाव में अभिलाषा आदि प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्व और अर्थ का प्रतिभास करा देना पन नहीं है जैसे स्मृति स्मरण करने योग्य स्वार्थों की ही प्रकाशिका है, वैसे अभिलाषा, रति, लोभवृत्ति आदिक परिणतियाँ स्वार्थों की ज्ञप्ति नहीं करा पाती है, क्योंकि अभिलाषा आदि मोहनीय कर्म के उदय होने पर आत्मा के विभाव भाव का फल है किन्तु, स्वार्थों का प्रकाश करना तो ज्ञानावरण के क्षयोपशम या क्षय हो जाने पर आत्मा का स्वाभाविक परिणाम है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान के समान-स्मृति ज्ञान भी स्वपर-अर्थ का प्रकाशक होने से प्रमाणभूत है। स्मृति ज्ञान और अनुमान ज्ञान से समारोप (संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) का व्यवच्छेद होना भी समान है अतः स्वार्थों के जानने में प्रमाणपना दोनों में से किसी एक में भी नहीं रोका जा सकता है। अर्थात् संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, अज्ञान स्वरूप समारोप का व्यवच्छेद करने वाले होने से स्मृति और अनुमान दोनों ही ज्ञान प्रमाण हैं // 21 // किसी विषय में प्रवृत्त समारोप का व्यवच्छेद जैसा अनुमान प्रमाण से होता है,उसी प्रकार स्मृति से भी समारोप का व्यवच्छेद हो जाता है अत: दोनों को प्रमाणपना युक्त है। अन्यथा (एक साथ दोनों के भी) अप्रमाणपने का प्रसंग आएगा। अर्थात् जैसे स्मृति अप्रमाण है, वैसे अनुमान को भी अप्रमाणपना प्राप्त होगा। अनुमान के प्रमाणत्व से स्मृतिज्ञान को हम प्रमाण ही इष्ट करते हैं, दूसरे प्रकारों से नहीं। बौद्ध के इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं स्मृतिज्ञान, अनुमान स्वरूप नहीं है क्योंकि व्याप्तियुक्त हेतु का अभाव होने पर भी स्मरणज्ञान का सद्भाव देखा जाता है जैसे साध्य और साधन के सम्बन्धरूप व्याप्ति का स्मरण करना अनुमान ज्ञान नहीं है। अन्यथा (व्याप्ति स्मरण को भी यदि अनुमानरूप माना जायेगा तो) उस अनुमान में भी व्याप्ति स्मरण की आवश्यकता होगी और वह व्याप्तिस्मरण भी तीसरा अनुमान पड़ेगा। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा,