________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 129 इति शब्दात् किं गृह्यते इत्याह;इति शब्दात्प्रकारागुद्धिर्मेधा च गृह्यते। प्रज्ञा च प्रतिभाभावः संभवोपमिती तथा // 3 // ननु च कथं मत्यादीनामनांतरत्वं व्यपदेशलक्षणविषयप्रतिभासभेदादिति चेत्कथंचिद्व्यपदेशादिभेदेप्येतदभिन्नता। न विरोधमधिष्ठातुमीष्टे प्रातीतिकत्वतः॥४॥ न हि व्यपदेशादिभेदेपि प्रत्यक्षव्यक्तीनां प्रमाणांतरत्वं परेषां, नाप्यनुमानादिव्यक्तीनामनुमानादिता स्वेष्टप्रमाणसंख्या नियमव्याघातात् प्रत्यक्षतानुमानादित्वेन वा। व्यपदेशादिभेदाभावान्न दोष इति चेत् मतिज्ञानत्वेन सामान्यतस्तदभावादविरोधोस्तु / प्रातीतिकी ह्येतेषामभिन्नता कथंचिदिति न प्रतिक्षेपमर्हति / कः कस्य प्रकार: स्यादित्युच्यते 'इति' शब्द से क्या ग्रहण किया गया है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं : प्रकार अर्थ वाले 'इति' शब्द से बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा, प्रतिभा, अभाव, सम्भव और उपमान का ग्रहण होता है॥३॥ शंका : जब मति, स्मृति आदि का नामनिर्देश, लक्षण, विषय और मति आदि ज्ञानों द्वारा प्रतिभास होना पृथक्-पृथक् है, तो फिर मति आदि का अनर्थान्तरपना कैसे है? समाधान : मति आदि का नाम, व्यवहार, लक्षण, आदि की अपेक्षा यद्यपि कथंचित् भिन्न-पना है, तो भी इनमें अभेद है। इसमें विरोध स्थापन के लिए कोई समर्थ नहीं है, क्योंकि मति, स्मृति आदि में एकसा मनन होना प्रतीतियों द्वारा निर्णीत है // 4 // - रसना इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष, चक्षु इन्द्रिय से उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष, योगी का प्रत्यक्ष, आदि प्रत्यक्ष व्यक्तियों के नाम संकीर्तन, लक्षण आदि का भेद होते हुए भी प्रत्येक प्रत्यक्ष का पृथक् -पृथक् भिन्न प्रमाणपना दूसरे (नैयायिक आदि) वादियों ने स्वीकार नहीं किया है। तथा अन्वयी हेतु से, व्यतिरेकी हेतु से एवं पूर्ववत् आदि हेतुओं से उत्पन्न हुए अनुमान अथवा स्वार्थ अनुमान, परार्थ अनुमानरूप से अनुमान का तथा पृथक्-पृथक् आदि व्यक्तियों का अवांतर भेद होते हुए भी पृथक्-पृथक् अनुमान आदिपना नहीं है, क्योंकि थोड़े-थोड़े से भेद का लक्ष्य कर यदि भिन्न-भिन्न प्रमाण स्वीकार किए जाएंगे, तो अपने अभीष्ट प्रमाणों की संख्या के नियम का व्याघात हो जाएगा। - सम्पूर्ण प्रत्यक्ष व्यक्तियों को प्रत्यक्षपना एकसा है और सभी स्वार्थानुमान, परार्थानुमान व्यक्तियों को अनुमानपना वैसा ही है। सामान्यत: व्यपदेश, लक्षण आदि का भेद नहीं होने से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों की अवांतर व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न प्रमाण बन जाने का दोष नहीं आता है। ऐसा कहने पर तो सामान्यरूप से मतिज्ञान के द्वारा इन मति, स्मृति आदि का कथंचित् अभिन्नपना प्रतीतियों में आरूढ़ है अत: इनके अभेद का खण्डन करने में कोई समर्थ नहीं है। . मति, स्मृति आदि में से किसके कौनसे मेधा आदि प्रकार हैं? ऐसी जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार समाधान करते हैं