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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *112 यदार्थालंबनं परोक्षं तत्प्रमाणमितरत्प्रमाणाभासमिति प्रमाणस्यानुवर्तनात्सिद्धं // . प्रत्यक्षमन्यत्॥ 12 // ननु च प्रत्यक्षाण्यन्यानीति वक्तव्यमवध्यादीनां त्रयाणां प्रत्यक्षविधानादिति न शंकनीयं / यस्मात्प्रत्यक्षमन्यदित्याह परोक्षादुदितात्परं। अवध्यादित्रयं ज्ञानं प्रमाणं चानुवृत्तितः॥१॥ उक्तात्परोक्षादवशिष्टमन्यत्प्रत्यक्षमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानमिति संबध्यते ज्ञानमित्यनुवर्तनात्। प्रमाणमिति च तस्यानुवृत्तेः। ततो न प्रत्यक्षाण्यन्यानीति वक्तव्यं विशेषानाश्रयात् सामान्याश्रयणादेवेष्टविशेषसिद्धेग्रंथगौरवपरिहाराच्च॥ ___ जो परोक्ष ज्ञान वास्तविक अर्थ को विषय करता है, वह प्रमाण है और जो उससे भिन्न ज्ञान ठीक अर्थ को आलंबन नही करता है, वह प्रमाणाभास है। यह पूर्वसूत्र से (प्रकृत सूत्र में) प्रमाणपद की अनुवृत्ति करने से सिद्ध हो जाता है। भावार्थ : प्रमाणस्वरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों परोक्ष प्रमाण हैं। जो अप्रमाण हैं वे तदाभास हैं। आचार्य उमा स्वामी अग्रिम सूत्र द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण का कथन करते हैं मति और श्रुतज्ञान से बचे हुए अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं // 12 // शंका : सूत्रकार को बहुवचन का प्रयोग करते हुए तीन प्रमाण प्रत्यक्ष हैं' ऐसा ‘जस्' विभक्तिवाले प्रत्यक्षाणि, अन्यानि ऐसे पद बोलने चाहिए थे क्योंकि अवधि आदि तीन प्रत्यक्ष ज्ञानों का विधान किया समाधान : इस प्रकार शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ज्ञान और प्रमाणं ऐसे एक वचनान्त दो पदों की पूर्वसूत्रों से अनुवृत्ति है। उक्त परोक्ष से अन्य बचा हुआ अवधि आदि तीन अवयवों का समुदाय ज्ञान प्रत्यक्ष है। अतः ज्ञान जाति की अपेक्षा एक वचन है॥१॥ पूर्वकथित परोक्षज्ञान से जो भिन्न सम्यग्ज्ञान अवशिष्ट रह गया है, वह प्रत्यक्ष है। इस प्रकार ज्ञान की अनुवृत्ति करने से अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इनका यहाँ सम्बन्ध हो जाता है और मति, श्रुत आदि सूत्र से या “तत्प्रमाणे" सूत्र में से तत्पदवाच्य ज्ञान से अनुमान एक वचन 'प्रमाणं' -इस प्रकार उसकी अनुवृत्ति हो रही है (अत: इस सूत्र का एक वचनान्त प्रयोग करना युक्त है), इसलिए विशेष व्यक्तियों का (पर्यायों का) आश्रय नहीं करने से बहुवचन वाले “प्रत्यक्षाणि अन्यानि" -इस प्रकार नहीं कहना चाहिए, क्योंकि प्रकरण में एक सामान्य का आश्रय लेने से ही हमारे अभीष्ट विशेष की सिद्धि हो जाती है तथा बहुवचन प्रयोग से होने वाले ग्रन्थ के गौरव का भी परिहार हो जाता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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